आक्षेप संख्या—4
Atharva Veda 5.20.4-5 “Let this war-drum victorious in the battle, loudly roaring and becoming the means of seizing whatever may be seized, be seen by all. Let this war-drum utter wonderful voice and let the army-controlling man capture the possessions of the enemies. Amid the conflict of the deadly weapons let the woman of enemy waked by the roar and afflicted run forward in her terror hearing the resounding and far reaching voice of the war drum, holding her son in her hand.” Tr. Vaidyanath Shastri.
दुन्दुभेर्वाचं प्रयतां वदन्तीमाशृण्वती नाथिता घोषबुद्धा। नारी पुत्रं धावतु हस्तगृह्यामित्री भीता समरे वधानाम्॥
भाष्य— दुन्दुभि वाद्य की स्पष्ट निकली हुई ध्वनि को सुनकर उसकी गर्जना से जागी हुई रिपु-स्त्रियाँ संग्राम में वीरों (पति) के मरने के कारण भयभीत होकर, अपने पुत्रों का हाथ पकड़कर भाग जाएँ।
आक्षेप का उत्तर—
यह मन्त्र इस प्रकार है—
दुन्दुभेर्वाचं प्रयतां वदन्तीमाशृण्वती नाथिता घोषबुद्धा। नारी पुत्रं धावतु हस्तगृह्यामित्री भीता समरे वधानाम्॥
इसका भाष्य इस प्रकार है—
आधिदैविक भाष्य— यह पाठकों के लिए पुस्तक रूप में ही भविष्य में उपलब्ध हो सकेगा।
आधिभौतिक भाष्य— यह आपने भी किसी का भाष्य हिन्दी में दिया है, जो कि भावार्थ रूप में ही है। आर्य विद्वान् पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने इसका भाष्य इस प्रकार किया है—
भाषार्थ— (दुन्दुभे:) दुन्दुभि की (प्रयताम्) नियमयुक्त, (वदन्तीम्) गूँजती हुई, (वाचम्) ध्वनि को (आशृण्वती) सुनती हुई, (घोषबुद्धा) गर्जन से जागी हुई, (नाथिता) अधीन हुई, (वधानाम्) मारू शस्त्रों के (समरे) समर में (भीता) डरी हुई (आमित्री) वैरी की (नारी) नारी (पुत्रम्) पुत्र को (हस्तगृह्य) हाथ में पकड़ कर (धावत्) भाग जावे।
भावार्थ— योद्धा लोगों नियमपूर्वक दुन्दुभि बजावें, जिससे शत्रु लोग हार जावें और उनकी स्त्री आदि भी घर छोड़कर चली जावें।
इस भाष्य पर आपको क्या आपत्ति है? आपके कुरान में तो शत्रुओं की महिलाओं और बच्चों की लूट का विधान है और इस बर्बरतापूर्ण कामुकता का ताण्डव सारे संसार ने देखा है और इसी के कारण भारतवर्ष की हजारों क्षत्राणियाँ जीवित चिताओं में जलने को विवश हुई थीं। वह तो आपको अच्छा लगता है? यहाँ वेद तो केवल दुष्ट अन्यायकारियों के विरुद्ध ही युद्ध की अनुमति देता है और युद्ध भी अन्तिम विकल्प होता है। उस युद्ध के भी निश्चित् नियम और मर्यादा होती है। इसी मर्यादा के कारण ही यहाँ स्त्रियों और बच्चों को युद्धस्थल से दूर भगाने के लिए कहा है, ताकि वे तो सुरक्षित रह सकें, उन्हें लूटने या मारने के लिए तो नहीं कहा। हाँ, यदि स्त्री भी हिंसक होकर युद्ध करे वा अत्याचार करे, तो उसे भी दण्डित करने का विधान है।
आध्यात्मिक भाष्य— (दुन्दुभे:) [दुन्दुभि:= परमा वा एषा वाग् या दुन्दुभौ (तै.ब्रा.१.३.६,२.३), दुन्दुभ्यतेर्वा स्याच्छद्ब्रदकर्मण: (निरुक्त ९.१२)] सृष्टि के प्रारम्भ में वेद का उपदेष्टा, जिसमें परम वाक् अर्थात् वेद वाक् सदैव विद्यमान रहती है, उस परमात्मा से (प्रयताम्) अच्छी प्रकार व्यवस्थित हुई (वदन्तीम्) नाना प्रकार के छन्दों के रूप में उच्चरित व प्रकाशित हुई (वाचम्) वेदवाणी को (आशृण्वती) ब्रह्म में स्थित योगी का आत्मा सब ओर से अनुभव करता हुआ (घोषबुद्धा) उस वेदवाणी के घोष के द्वारा जाग उठता है अर्थात् जिस प्रकार रात्रि के अन्धकार में सोया हुआ मनुष्य उषाकाल होते ही जाग उठता है, उसी प्रकार वेदवाणी के घोष से अज्ञानरूपी अन्धकार सर्वथा समाप्त होकर ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। इसी को आत्मा का जागरण कहा गया है। (नाथिता) वह आत्मा परब्रह्म परमात्मा के सानिध्य से अलौकिक ऐश्वर्य को प्राप्त होता है। (वधानाम्, समरे) [वध= बलनाम (निघं.२.९), वज्रनाम (निघं.२.२०); समर: = सम्+ऋ गतिप्रापणयो: धातो: ‘ऋदोरप्’ इत्यप् अथवा शम अव्यैक्लव्ये धातोर्बाहुलकात् औणादिक अर: प्रत्यय: (वैदिक कोष)] परमात्मा के साक्षात्कार से महान् आत्मबल को प्राप्त करने पर उस प्रशान्तात्मा (भीता, आमित्री, नारी) से भयभीत होती हुई [नारी = नाराणामियं क्रिया (म.द.य.भा.५.२२)] उसके अन्त:करण में विद्यमान पूर्व अनिष्ट कर्म, जो ईश्वर से विमुख करने वाले होते हैं(पुत्रम्, हस्तगृह्य, धावतु) वे अपने सन्तानरूप फलों को लेकर दूर भाग जाते हैं।
भावार्थ— जब कोई योगी योगसाधना करता है, तब उसे अन्तरिक्षस्थ वेद की ऋचाएँ परा व पश्यन्ती रूप में अनुभूत होती हैं। उन वेद की ऋचाओं का उत्पत्तिकर्त्ता वही परमेश्वर है, जो इस सृष्टि की उत्पत्ति करता है। उस वेदवाणी को सुनकर और उनके अर्थों का बोध करके योगी पुरुष परमात्मा केे प्रति पूर्ण समर्पण युक्त होकर उन्हीं में मग्न हो जाता है। उस समय योगी के चित्त में पूर्व जन्म के कुछ अवांछित संस्कारों और वासनाओं से उसका संघर्ष होने लगता है। इस संघर्ष में जो-जो भी अनिष्ट कर्मों के संस्कार एवं विचार विद्यमान होते हैं। वे सब अपने सम्भावित फलों के साथ दूर चले जाते वा नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार से धीरे-धीरे उस योगी के सभी पूूर्व संस्कार दग्धबीज हो जाते हैं और वह योगी मुक्ति के पथ पर चल पड़ता है।