आक्षेप संख्या—5
Atharva Veda 4.31.7 “Let the King [Varuna] and Manyu, the warm emotion give us the wealth of both kinds-earned and gathered. Let our enemies overwhelmed with terror in their mind and spirit and defeated in their design run away.” Tr. Vaidyanath Shastri. Yaska Acharya also writes about terror, Nirukta 10.21 …These are hemstitch. Like a spear hurled, it inspires terror (among enemies) or courage (among friends)…
यहाँ आक्षेपकर्त्ता का आक्षेप है कि वेद में शत्रुओं को आतंकित करने का विधान है। हम पूर्व में यह समझा चुके हैं कि वैदिक संस्कृति में चोर, डाकू, लुटेरे, दुराचारी और अन्यायकारी लोगों को ही दुष्ट और शत्रु कहा गया है। वस्तुत: ऐसे लोग मानवता के शत्रु होते हैं, जिन्हें अवश्य ही दण्ड देना चाहिए। यहाँ आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद भी पूर्व अनुवादों की भाँति अति सामान्य और अस्पष्ट है, परन्तु उनके भाव समझने के लिए आपको वैदिक संस्कृति से निष्पक्षतापूूर्वक परिचित होना पड़ेगा और हमारे द्वारा अब तक किये गये समाधान को भी बुद्धि और हृदय में बिठाना पड़ेगा। इस अनुवाद में आपको क्या दोष दिखाई दिया? यह मन्त्र इस प्रकार है—
संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं धत्तां वरुणश्च मन्यु:। भियो दधाना हृदयेषु शत्रव: पराजितासो अप नि लयन्ताम्॥ [अथर्व:४.३१.७]
आक्षेप का उत्तर—
इस मन्त्र पर हम अपने ढंग से विचार करते हैं—
आधिदैविक भाष्य— यह पाठकों के लिए पुस्तक रूप में ही भविष्य में उपलब्ध हो सकेगा।
आधिभौतिक भाष्य— (वरुण:, च, मन्यु:) विद्वान् सज्जनों के द्वारा वरणीय, दुष्ट जनों को बाँधने वाला एवं अपराधियों पर क्रोध करने वाला श्रेष्ठ राजा (संसृष्टम्) राष्ट्र में उत्पन्न अन्नादि भोज्य पदार्थ एवं खनिज आदि विभिन्न प्रकार के पदार्थ (समाकृतम्) प्रजा से संगृहीत किये गये कर (उभयम्, धनम्) इन दोनों प्रकार के धनों को (अस्मभ्यम्, धत्ताम्) हम प्रजा जनों को समुचित रूप से प्रदान करे। (पराजितास:, शत्रव:) पराजित हुए दुष्ट शत्रुओं के (हृदयेषु, भिय: दधाना:) हृदयों में भय उत्पन्न करता है, जिससे (अप, नि, लयन्ताम्) वे शत्रु दूर भागकर चले जाते हैं, फिर कभी वापिस नहीं लौटते अथवा वे शत्रुता के व्यवहार को ही सर्वथा त्याग देते हैं।
भावार्थ— किसी भी राष्ट्र का राजा विद्वान् सदाचारियों द्वारा ही चुना जाना चाहिए। ऐसे राजा का कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्र की सम्पूर्ण सम्पत्ति की वास्तविक स्वामिनी प्रजा को ही समझे और उसे प्रजा के कल्याण के लिए ही व्यय करे। वह राजा अपराधियों एवं राष्ट्र व समाज विरोधी तत्त्वों एवं विदेशी शत्रुओं को यथापराध कठिन दण्ड देवे, जिससे वे राष्ट्र को कोई हानि न पहुँचा सकें ।
आध्यात्मिक भाष्य— (वरुण:, च, मन्यु:) सबका वरणीय सर्वोत्कृष्ट मन्युरूप परमेश्वर (संसृष्टम्) हमारे क्रियमाण कर्मों (समाकृतम्) एवं संचित कर्मों (उभयम्, धनम्, अस्मभ्यम्, धत्ताम्) दोनों के अनुसार हमें सांसारिक पदार्थ और बुद्धि आदि इन्द्रियाँ प्रदान करता है। वह परमेश्वर नाना प्रकार के पाप कर्मों के प्रति पवित्र हृदय वाले मनुष्यों के हृदयों में भय, लज्जा, शंका आदि उत्पन्न करता है (पराजितास:, शत्रव:) जिससे नाना प्रकार के पापरूप शत्रु पराजित होकर (अप, नि, लयन्ताम्) दूर चले जाते हैं।
भावार्थ— इस सृष्टि में परमेश्वर से बढक़र कोई भी श्रेष्ठ और उपास्य सत्ता नहीं है। वह ईश्वर अपने न्यायानुसार हमें इस जन्म तथा पूूर्व जन्मों में किये गये कर्मों के अनुसार फल प्रदान करता है। जिन मनुष्यों का अन्त:करण पवित्र और शान्त होता है, उनके हृदय में परमात्मा कोई भी अनुचित कार्य करने की इच्छा करते समय भय, लज्जा और शंका उत्पन्न करता है, जिससे वे पापकर्म करने से बचे रहते हैं। यद्यपि यह भय, लज्जा, शंका सभी मनुष्यों के हृदय में उत्पन्न होती है, परन्तु अविद्यादि दोषों से ग्रस्त दुरात्मा एवं अशान्तात्मा उनको अनुभव नहीं कर पाते। इस कारण हमने यहाँ पवित्र अन्त:करण वालों में भय, लज्जा, शंका आदि होना कहा है। इस कारण प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह विद्या का अभ्यास करता हुआ उपासना केे द्वारा अपने अन्त:करण को पवित्र और शान्त रखने का प्रयास निरन्तर करता रहे, जिससे परमेश्वर की प्रेरणा के द्वारा उसे कर्त्तव्याकर्त्तव्य का सम्यक् बोध होता रहे।
कहिए सुलेमान रजवी! आपको इस मन्त्र में कहाँ हिंसा दिखाई दी? आप तो अनुवादकों के भी आशय को समझ नहीं पाते और काकवत् चेष्टा करके साफ-सुथरी त्वचा में भी घाव करने का प्रयास करते हैं। आपने जो निरुक्त का उद्धरण दिया है, वह भी केवल अनुवाद ही है। यह किस अंश का अनुवाद है, यह भी आपको ज्ञात है क्या, नहीं कह सकते। चलिये कोई बात नहीं, हम आपको बता देते हैं कि आपने निम्रलिखित अंश के अनुवाद का भाग उद्धृत किया है। निरुक्त का वह अंश इस प्रकार है—
‘‘सेनेव सृष्टा। भयं वा बलं वा दधाति। अस्तुरिव दिद्युत्त्वेषप्रतीका भयप्रतीका। बलप्रतीका यश:प्रतीका:। महाप्रतीका दीप्तप्रतीका वा।’’
महर्षि यास्क का यह कथन ‘सेनेव सृष्टामं दधात्यस्तुर्न दिद्युत्त्वेषप्रतीका’ (ऋग्वेद १.६६.४) का भाष्य है। इसकी व्याख्या सबको समझ में आने वाली नहीं है। यह पूरा मन्त्र इस प्रकार है—
सेनेव सृष्टामं दधात्यस्तुर्न दिद्युत्त्वेषप्रीका। यमो ह जातो यमो जनित्वं जार: कनीनां पतिर्जनीनाम्॥ (ऋग्वेद १.६६.४)
यहाँ हम आधिभौतिक भाष्य ऋषि दयानन्द का ही उद्धृत कर रहे हैं, जो इस प्रकार है—
पदार्थ: — (सेनेव) यथा सुशिक्षिता वीरपुरुषाणां विजयकर्त्री सेनास्ति तथाभूत: (सृष्टा) युद्धाय प्रेरिता (अमम्) अपरिपक्वविज्ञानं जनम् (दधाति) धरति (अस्तु:) शत्रूणां विजेतु: प्रक्षेप्तु: (न) इव (दिद्युत्) विच्छेदिका (यम:) नियन्ता (ह) किल (जात:) प्रकटत्वं गत: (यम:) सर्वोपरत: (जनित्वम्) जन्मादिकारणम् (जार:) हन्ता सूर्य्य: (कनीनाम्) कन्येव वर्त्तमानानां रात्रीणां सूर्य्यादीनां वा (पति:) पालयिता (जनीनाम्) जनानां प्रजानाम्।
भावार्थ: — अत्रोपमालङ्कार:। मनुष्यैर्विद्यया सम्यक् प्रयत्नेन यथा सुशिक्षिता सेना शत्रून् विजित्य विजयं करोति। यथा च धनुर्वेदविद: शत्रूणामुपरि शस्त्रास्त्राणि प्रक्षिप्यैतान्विच्छिद्य प्रलयं गमयन्ति तथैवोत्तम: सेनाऽधिपति: सर्वदु:खानि नाशयतीति बोद्धव्यम्।
पदार्थ — हे मनुष्यो! तुम लोग जो सेनापति (यम:) नियम करने वाला (जात:) प्रकट (यम:) सर्वथा नियमकर्त्ता (जनित्वम्) जन्मादि कारणयुक्त (कनीनाम्) कन्यावत् वर्त्तमान रात्रियों के (जार:) आयु का हननकर्त्ता सूर्य के समान (जनीनाम्) उत्पन्न हुई प्रजाओं का (पति:) पालनकर्त्ता (सृष्टा) प्रेरित (सेनेव) अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुई वीर पुरुषों की विजय करने वाली सेना के समान (अस्तु:) शत्रुओं के ऊपर अस्त्र-शस्त्र चलाने वाले (त्वेषप्रतीका) दीप्तियों के प्रतीति करने वाले (दिद्युन्न) बिजुली के समान (अमम्) अपरिपक्व विज्ञानयुक्त जन को (दधाति) धारण करता है, उसका सेवन करो।
भावार्थ — इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्या से अच्छे प्रयत्न द्वारा जैसे की हुई उत्तम शिक्षा से सिद्ध की हुई सेना शत्रुओं को जीत कर विजय करती है, जैसे धनुर्वेद के जानने वाले विद्वान् लोग शत्रुओं के ऊपर शस्त्र-अस्त्रों को छोड़ उनका छेदन करके भगा देते हैं, वैसे उत्तम सेनापति सब दु:खों का नाश करता है, ऐसा तुम जानो।
अब हम इसका आध्यात्मिक भाष्य प्रस्तुत करते हैं—
आध्यात्मिक भाष्य— (सृष्टा, त्वेषप्रतीका, सेना, इव) [भयप्रतीका बलप्रतीका यश:प्रतीका महाप्रतीका दीप्तप्रतीका] कुशलतापूर्वक सुसज्जित बल, भय और तेजस्विता की प्रतीका सेना के समान (यम:, ह, जात:) जितेन्द्रियता आदि गुणों से प्रसिद्ध विद्वान् (अमम्, दधाति) [अम: = गृहम् (म.द.ऋ.भा. ५.५६.३), अमं भयं बलं वा (निरु.१०.२१), अमा गृहनाम (निघं. ३.४)] सबका आश्रयदाता एवं सभी बलों के देने वाले परमात्मा को धारण करता है। (अस्तु:, न, दिद्युत्) [अस्तु: = शत्रुनाम विजेतु: प्रक्षेप्तु: (ऋषि दया.भा.)] वह योगनिष्ठ विद्वान् शत्रुओं को जीतने वाली सेना के समान अपने सभी दोषों को काट डालता है। (यम:, जनित्वम्, जार:) वह नियतात्मा योगी अपने जन्म-मरण केे कारणरूप अविवेक को अपनी साधना के द्वारा निरन्तर जीर्ण करता जाता है। (कनीनाम्, जनीनाम्, पति:) [कनीन: = कनी दीप्तिकान्तिगतिषु (भ्वा.) धातोर्बाहु. ईनप्रत्यय: (वैदिक-कोष)] वह योगी ब्रह्मतेज का पान करता हुआ मनुष्य मात्र का अपने सदुपदेश के द्वारा संरक्षण करता है।
भावार्थ— जिस प्रकार से शत्रु को अपने बल और तेजस्विता से भयभीत करने वाली सेना शत्रु को दूर भगा देती है, उसी प्रकार से योगनिष्ठ विद्वान् अपने सभी दोषों और पूर्वजन्म के संस्कारों को दग्धबीज करने में समर्थ होता है। ऐसा समर्थ वह योगी परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान और आनन्द को धारण करता हुआ परम लोक को प्राप्त होता है। ऐसा योगी पुरुष अपने सदुपदेश के द्वारा निरन्तर सभी प्राणियों केे उपकार में भी संलग्न रहता है। बिना परोपकार के कोई भी व्यक्ति योगी नहीं बन सकता। जो कोई समाज से दान वा भिक्षा आदि प्राप्त करके अपना जीवनयापन करते हैं, वे समाज के ऋणी होते हैं और उस ऋण को चुकाए बिना यदि कोई केवल आत्मकल्याण हेतु सदैव योगसाधना ही करता रहता है, उसका कभी योग सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए मुमुक्षु जनों को चाहिए कि समाज के ऋण से उऋण होने के लिए वे निरन्तर अपने सदुपदेश के द्वारा प्राणिमात्र का कल्याण करने का प्रयास करता रहें।
इस प्रकरण पर क्या कोई बुद्धिमान् व्यक्ति आपत्ति कर सकता है?