आक्षेप संख्या—7
Rig Veda 1.103.6 “…The Hero, watching like a thief in ambush, goes parting the possessions of the godless.” Tr. Ralph T.H. Griffith
अग्नीषोमा चेति तद्वीर्यं वां यदमुष्णीतमवसं पणिं गा:। अवातिरतं बृसयस्य शेषोऽविन्दतञ्ज्योतिरेकं बहुभ्य:॥
हे अग्निदेव और सोमदेव! आपका वह पराक्रम उस समय ज्ञात हुआ, जब आपने ‘पणि’ से गौओं का हरण किया और ‘बृसय’ के शेष रक्षकों को क्षत-विक्षत किया। असंख्यों के लिये सूर्य प्रकाश का प्राकट्य किया।
आक्षेप का उत्तर—
यहाँ आपने जिनका भाष्य उद्धृत किया है, उनका आपने नाम नहीं लिया। ये दोनों ही भाष्यकार अग्नि और सोम से गायों की चोरी करवा रहे हैं। एक ओर तो ये भाष्यकार अग्नि और सोम देव के द्वारा सूर्य के प्रकाश का प्रकट होना बताते हैं, उसी सूर्य को प्रकट करने वाले से गाय की चोरी करवाते हैं। इसमें तो रजवी आपको भी बुद्धि से सोचना चाहिए। गायों को चुराने वाला कोई मनुष्य तो हो सकता है, कोई मांसाहारी जानवर भी हो सकता है, परन्तु सूर्य को बनाने वाली सर्वशक्तिमती सत्ता गायों की चोरी करेगी, किसी के भोजन की चोरी करेगी, ऐसा तो कोई गम्भीर मानसिक रोगी ही सोच सकता है। अब हम इसका ऋषि दयानन्द का भाष्य यहाँ प्रस्तुत करते हैं—
पदार्थ: — (अग्नीषोमा) वायुविद्युतौ (चेति) विज्ञातं प्रख्यातमस्ति (तत्) (वीर्यम्) पृथिव्यादिलोकानां बलम् (वाम्) ययो: (यत्) (अमुष्णीतम्) चोरवद्धरतम् (अवसम्) रक्षणादिकम् (पणिम्) व्यवहारम् (गा:) किरणान् (अव) (अतिरतम्) तमो हिंस्त:। अवतिरतिरिति वधकर्मा.॥ निघं.२.१९॥ (बृसयस्य) आच्छादकस्य। वस आच्छादन इत्यस्मात् पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धि:। (शेष:) अवशिष्टो भाग: (अविन्दतम्) लम्भयतम् (ज्योति:) दीप्तिम् (एकम्) असहायम् (बहूभ्य:) अनेकेभ्य: पदार्थेभ्य:।
भावार्थ: — मनुष्यैर्यावत्प्रसिद्धं तमस आच्छादकं सर्वंलोकप्रकाशकं तेजो जायते तावत्सर्वं कारणभूतयोर्वायुविद्युतो: सकाशाद्भवतीति बोध्यम्।
पदार्थ — जो (अग्नीषोमा) वायु और विद्युत् (यत्) जिस (अवसम्) रक्षा आदि (पणिम्) व्यवहार को (अमुष्णीतम्) चोरते प्रसिद्धाप्रसिद्ध ग्रहण करते (गा:) सूर्य्य की किरणों का विस्तार कर (अवातिरतम्) अन्धकार का विनाश करते (बहुभ्य:) अनेकों पदार्थों से (एकम्) एक (ज्योति:) सूर्य के प्रकाश को (अविन्दतम्) प्राप्त कराते हैं, जिनके (बृसयस्य) ढांपने वाले सूर्य का (शेष:) अवशेष भाग लोकों को प्राप्त होता है (वाम्) इनका (तत्) वह (वीर्य्यम्) पराक्रम (चेति) विदित है सब कोई जानते हैं।
भावार्थ — मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि जितना प्रसिद्ध अन्धकार को ढांप देने और सब लोकों को प्रकाशित करने हारा तेज होता है, उतना सब कारणरूप पवन और बिजुली की उत्तेजना से होता है।
यहाँ ऋषि दयानन्द ने वायु और विद्युत् के गुणों का वर्णन किया है। वस्तुत: यह वर्णन वेद में है। सूर्य अथवा किसी भी तारे के प्रकाश का मूल कारण वायु और विद्युत् है। इस बात को ऋषि दयानन्द के समय में संसार के बड़े-२ भौतिक वैज्ञानिक भी नहीं जानते होंगे। यहाँ वायु से तात्पर्य उस सूक्ष्म तत्त्व से है, जिससे फोटोन तथा मूल कणों का निर्माण होता है। वर्तमान विज्ञान की भाषा में इस पदार्थ की कुछ तुलना वैक्यूम एनर्जी और डार्क एनर्जी से कर सकते हैं। अब कोई वेद पर आक्षेप लगाने वाला अथवा ऋषि दयानन्द का उपहास करने वाला मुझे बताए कि वह प्रकाश की उत्पत्ति और उत्सर्जन वा अवशोषण आदि में वैक्यूम एनर्जी और विद्युत् की भूमिका के बारे में कितना ज्ञान रखता है? मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि आप अथवा कोई भी वेदविरोधी शायद ही कुछ जानते हों। अब संसार भर के कथित धर्मग्रन्थों को मानने वाले बतायें कि उनके धर्मग्रन्थों में इस प्रकार की गम्भीर विद्या का कोई संकेत भी है? यहाँ ‘अमुष्णीतम्’ पद देखकर चोरी अर्थ ग्रहण कर लिया। ऋषि दयानन्द ने इसका अर्थ ‘चोरवद्धर्त्तम्’ किया है, जिसका अर्थ है— जैसे चोर चुपचाप किसी की वस्तु को उठाता है और किसी को उसका ज्ञान भी नहीं होता, वैसे ही सूर्यादि लोकों में विद्युत् और वायु रश्मियों की क्रियाएँ इस प्रकार से होती हैं कि उनको हम स्पष्टत: जान भी नहीं सकते। इसलिए इस प्रकार की उपमा दी गई है। आप आरोप लगाने से पहले थोड़ा तो बुद्धि से काम लेते, परन्तु क्या करें बुद्धि से काम तो बुद्धिमान् ही ले सकता है।
आपने इसी प्रकार के कुछ ओर उद्धरण दिये हैं, उनका उत्तर भी आप ऐसे ही समझ सकते हैं।