आक्षेप संख्या—9
Yajur Veda 5.26 By impulse of God Savitar I take thee with arms of Asvins, with the hands of Peahen.Thou art a woman. Here I cut the necks of Rakshasas away. Barley art thou. Bar off from us our haters, bar our enemies…
देवस्य त्वा सवितु: प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। आददे नार्यसीदमह-रक्षसां ग्रीवाऽ अपिकृन्तामि। यवोसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातीर्दिवे त्वान्तरिक्षाय त्वा पृथिव्यै त्वा शुन्धन्ताँल्लोका: पितृषदना: पितृषदनमसि
हे अभ्रि (में अधिष्ठित देवसत्ता)! हम सविता से प्रेरित अश्विनीदेवों की भुजाओं से तथा पूषादेव के हाथों से आपको स्वीकार करते हैं। आप हमारे अनुकूल हों। गड्ढा खोदने के रूप में हम अब राक्षसों की गर्दन काटते हैं। उनका विनाश करते हैं। हे यव! (पृथक् करने के स्वभाव से युक्त) दुर्भाग्य से तथा शत्रुओं के समूह से आप हमे अलग करें। हे उदुम्बर वृक्ष की शाखे! (अग्रभाग) द्युलोक को हर्षित करने के लिए, (मध्यभाग) अन्तरिक्षलोक को प्रसन्न करने के लिए तथा (मूलभाग) पृथिवी को प्रसन्न करने के लिए हम आपका प्रोक्षण करते हैं। हे यजुष्! इस जल से पितरों का निवास स्थान शुद्ध हो। हे कुश! आप पितरों के आवास स्थान हैं।
आक्षेप का उत्तर—
यहाँ भी आपने गैर हिन्दुओं को राक्षस बता कर उनकी गर्दन काटने का आरोप लगाया है। आपने ये हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद वा भाष्य किसके दिये हैं, यह नहीं दर्शाया। यह भी आपकी एक चालबाजी का सूचक है। जहाँ किसी आर्यसमाजी विद्वान् का भाष्य अथवा अनुवाद है, उसके साथ उस अनुवादक अथवा भाष्यकार का नाम आपने दे दिया है, परन्तु जहाँ किसी अन्य का भाष्य अथवा अनुवाद है, वहाँ आपने नाम ही छुपा लिया है, यह कदापि ईमानदारी नहीं है। हम यहाँ इस मन्त्र का ऋषि दयानन्द सरस्वती का भाष्य उद्धृत करते हैं—
पदार्थ: — (देवस्य) सर्वानन्दप्रदस्य (त्वा) त्वां होमशिल्पाख्ययज्ञकर्त्तारम् (सवितु:) सकलोत्पादकस्येश्वरस्य (प्रसवे) यथा सृष्टौ तथा (अश्विनो:) प्राणापानयो: (बाहुभ्याम्) यथा बलवीर्याभ्यां तथा (पूष्ण:) पुष्टिमतो वीरस्य (हस्ताभ्याम्) यथा प्रबलभुजदण्डाभ्यां तथा (आ) समन्तात् (ददे) गृह्णामि (नारि) नराणामियं शक्तिमती स्त्री तत्संबुद्धौ (असि) भवति (इदम्) विश्वम् (अहम्) सभाध्यक्ष: (रक्षसाम्) दुष्टकर्मकारिणां प्राणिनाम् (ग्रीवा:) शिरांसि (अपि) निश्वये (कृन्तामि) छिनद्मि (यव:) मिश्रणामिश्रणकत्र्ता (असि) वर्त्तसे (यवय) श्रेष्ठैर्गुणै: सह मिश्रय। दोषेभ्यश्च दूरीकारय। अत्र वा छन्दसीति वृद्ध्यभाव: (अस्मत्) स्वेभ्य: (द्वेष:) ईर्ष्यादिदोषान् (यवय) दूरीकारय (अराती:) शत्रून् (दिवे) सत्यधर्मप्रकाशाय (त्वा) त्वाम् (अन्तरिक्षाय) आकाशे गमनाय (त्वा) त्वाम् (पृथिव्यै) पृथिवीस्थपदार्थपुष्टये (त्वा) त्वाम् (शुन्धन्ताम्) पवित्रीकुर्वताम् (लोका:) सर्वे (पितृषदना:) यथा पितृषु ज्ञानिषु सीदन्ति तथा (पितृषदनम्) यथा विद्यावन्तो ज्ञानिनस्सीदन्ति यस्मिंस्तथा (असि) अस्ति।
भावार्थ: — अत्रोपमालङ्कार:। मनुष्यैर्यथाक्रियं यथानुक्रमं विद्वदाश्रयं कृत्वा यज्ञमनुष्ठाय सर्वेषां शुद्धि: संपादनीया।
पदार्थ — हे विद्वान् मनुष्य! जैसे मैं (सवितु:) सब जगत् के उत्पन्न करने और (देवस्य) सब आनन्द के देने वाले परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अश्विनो:) प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) बल और वीर्य तथा (पूष्ण:) अतिपुष्ट वीर के (हस्ताभ्याम्) प्रबल प्रतापयुक्त भुज और दण्ड से अनेक उपकारों को (आददे) लेता वा (इदम्) इस जगत् की रक्षा कर (रक्षसाम्) दुष्टकर्म करने वाले प्राणियों के (ग्रीवा:) शिरों का (अपि) (कृन्तामि) छेदन ही करता हूँ तथा जैसे पदार्थों का मेल कर जैसे मैं (द्वेष:) ईर्ष्या आदि दोष वा (अराती:) शत्रुओं को (अस्मत् ) अपने से दूर कराता हूँ वैसे तू भी (यवय) दूर करा। हे विद्वान्! जैसे हम लोग (दिवे) ऐश्वर्य्यादि गुण के प्रकाश होने के लिये (त्वा) तुझ को (अन्तरिक्षाय) आकाश में रहने वाले पदार्थ को शोधने के लिये (त्वा) तुझ को (पृथिव्यै) पृथिवी के पदार्थों की पुष्टि होने केे लिये (त्वा) तुझ को सेवन करते हैं वैसे तुम लोग भी करो। जैसे (पितृषदनम्) विद्या पढ़े हुए ज्ञानी लोगों का यह स्थान (असि) है और जिस से (पितृषदना:) जैसे ज्ञानियों में ठहर पवित्र होते हैं वैसे मैं शुद्ध होऊँ तथा सब मनुष्य (शुन्धन्ताम्) अपनी शुद्धि करें और हे स्त्री! तू भी यह सब इसी प्रकार कर।
भावार्थ — इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि ठीक-ठीक क्रियाक्रमपूर्वक विद्वानों का आश्रय और यज्ञ का अनुष्ठान करके सब प्रकार से अपनी शुद्धि करें।
इस भाष्य में कहीं कुछ ऐसा नहीं है, जिससे किसी व्यक्ति, वर्ग अथवा देश को लक्ष्य बनाकर उसके नाश की बात कही गयी है और दुष्टों के नाश के लिए ही संसार भर के सभ्य समाजों में न्यायपूर्ण दण्ड व्यवस्था पाई जाती है, जिसका कोई विरोध भी नहीं करता। दुष्ट को दण्ड न देना और सज्जन को संरक्षित न करना अराजक राष्ट्र की पहचान है, इसलिए दुष्ट को दण्ड देने का विधान न केवल ईश्वरीय ज्ञान वेद में विद्यमान है, अपितु संसार भर की राजव्यवस्थाएँ भी इसी सिद्धान्त पर कार्य करती हैं। ऐसा नहीं करने पर सम्पूर्ण संसार में अराजकता फैल जाएगी। जहाँ तक आपके द्वारा उद्धृत अनुवाद की बात है, तो मैं दृढ़ता से कह सकता हूँ कि न तो वह स्पष्ट व उचित है और न वह आपकी समझ में ही आया है। मात्र 'राक्षस' शब्द देखकर आरोप लगा दिया है।