#7 वैदिक ईश्वर को न मानने वाला दोषी क्यों?

 विशेष वक्तव्य


हम यहाँ वेद के कुछ उन मन्त्रों को उद्धृत करते हैं, जिनमें केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र के प्रति अत्यन्त प्रेम और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार की बात की गई है।

  • मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे। (यजु.36.18) अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति मित्र के समान व्यवहार करें।
  • समानी प्रपा सह वोऽन्नभाग:। (अथर्व.3.30.6) अर्थात् हम सब मनुष्यों के खान-पान समान होवें।
  • यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्। (यजु.32.8) अर्थात् हम सब पृथिवीवासी परस्पर इस प्रकार रहें, जैसे घोंसले में पक्षी का परिवार परस्पर प्रेम से रहता है।
  • समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम्। (ऋ.10.191.3) अर्थात् हम सब मनुष्यों के विचार, हमारी सामाजिक परम्पराएँ, हमारे चित्त और भावनाएँ सब समान होवें।
  • अज्येष्ठासो अकनिष्ठास:। (ऋ.5.60.5) अर्थात् हम मनुष्यों में कोई भी बड़ा नहीं है और कोई भी छोटा नहीं है अर्थात् सभी एक पिता परमात्मा की सन्तान हैं।

इस प्रकार के उदात्त उपदेशों के रहते कोई अज्ञानी व्यक्ति ही वेदों में हिंसा, छुआछूत, ऊँच-नीच, शोषण जैसे पापों का आरोप लगा सकता है। बुद्धिमान् तो कभी इस प्रकार का विचार मन में भी नहीं ला सकता। इस कारण इस प्रकरण को हम यहाँ समाप्त करते हैं। वैदिक ईश्वर को न मानने वाला दोषी क्यों?

सुलेमान रजवी के आरोपों में अनेक मन्त्रों पर यह आरोप है कि उसमें नास्तिकों को दण्ड देने का प्रावधान है। सर्वप्रथम तो हम यहाँ यह कहना चाहेंगे कि सत्यप्रकाश सरस्वती के अनुवाद अथवा अन्य जिसने भी अनुवाद किये हैं, वे वेद के वास्तविक एवं सम्पूर्ण आशय को व्यक्त करने में नितान्त असमर्थ हैं। वेद का भाष्य करने की शैली वही होनी चाहिए, जो हमने दो मन्त्रों का भाष्य करके पूर्व में दर्शायी है। वेद का मूल अर्थ तो आधिदैविक ही होता है, अन्य दोनों प्रकार के अर्थ मूल अर्थ के साथ कहीं न कहीं संगत रहते हैं। मूल अर्थ सार्वदेशिक व शाश्वत होता है, जबकि आधिभौतिक अर्थ भिन्न-भिन्न लोकों के मननशील प्राणियों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकता है, परन्तु आध्यात्मिक अर्थ भी शाश्वत और सार्वदेशिक होता है। सारांशत: वेद का आधिदैविक भाष्य किये बिना अथवा उसे जाने बिना अन्य दोनों प्रकार के भाष्य संदिग्ध ही रहते हैं। ऋषि दयानन्द ने समयाभाव के कारण आधिदैविक भाष्य बहुत कम मन्त्रों के किये हैं। उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय, सामाजिक और वैश्विक परिस्थितियों को देखते हुए मनुष्यों को आध्यात्मिक बनाने के साथ-साथ लौकिक व्यवहार में भी कुशल और सर्वहितैषी बनाने की भावना से प्राय: आधिभौतिक और आध्यात्मिक अर्थ ही किये हैंं। उन्होंने केवल संस्कृत भाषा में ही अपने भाष्य किये हैं, हिन्दी भाषा उनके सहयोगी पण्डितों ने बनायी है। इस कारण उस हिन्दी भाषा में अनेकत्र त्रुटियाँ भी रह गयी हैं। कहीं त्रुटियाँ अनजाने में हुई हैं, तो कहीं जानबूझकर भी की हुई प्रतीत होती हैं।

वेद के अन्य आर्यसमाजी भाष्यकारों ने ऋषि दयानन्द की शैली का यथाशक्ति अनुसरण करने का प्रयास किया है, परन्तु जहाँ वे ऐसा नहीं कर सके, वहाँ वे आचार्य सायण आदि का अनुसरण करने को ही विवश हुए हैं। इस कारण अनेकत्र भारी दोष आ गये हैं। यह सब कहने का अर्थ यह भी नहीं है कि कोई भी अनाड़ी व्यक्ति वेद पर आक्रमण करने का अधिकारी हो गया। कमजोर काँच के महल में रहने वाले पत्थरों के बने महलों में रहने वालों पर पत्थर फेंकने का दुस्साहस करें, यह हास्यास्पद ही है। इतने पर भी हम इनके इन आक्षेपों के विषय में कुछ बातें स्पष्ट करना चाहते हैं, उनमें प्रथम यह है कि नास्तिक किसे कहते हैं? भगवान् मनु के अनुसार— ‘नास्तिको वेदनिन्दक:’ अर्थात् जो वेद की निन्दा करता है, ज्ञान-विज्ञान की निन्दा करता है, ज्ञानियों का शत्रु है, ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करता है, लोगों को अन्धविश्वासी बनाता है, विद्या का विरोधी बनाता है, जो स्वयं सत्य से दूर रहता और दूसरों को सत्य से दूर करने का प्रयास करता है, उसे नास्तिक कहते हैं। वेद सत्यासत्य के विचार बिना किसी बात को बलात् स्वीकार करने का उपदेश नहींं करता, बल्कि वह सत्य और असत्य को जानकर ही सम्पूर्ण लोकव्यवहार करने का उपदेश करता है। प्राणिमात्र के प्रति मैत्री करने और दुष्टों को दण्ड देने का उपदेश करता है। सम्पूर्ण सृष्टि के वैज्ञानिक रहस्यों का उद्घाटन करता है। वेद कोई साम्प्रदायिक अथवा किसी वर्ग व देश का ग्रन्थ नहीं है, बल्कि यह ब्रह्माण्डीय ग्रन्थ है। इसका विरोध करने का अर्थ यह है कि विरोध करने वाला व्यक्ति सम्पूर्ण सृष्टि के ज्ञान-विज्ञान का विरोधी है। अब कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति विचार करे कि ऐसे महान् ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ वेद का विरोध करने वाला मानवता का हितैषी होगा वा शत्रु होगा। निश्चित ही वह मानवता का प्रबल शत्रु होगा। तब मानवता के प्रबल शत्रु को दण्ड क्यों नहीं देना चाहिए? इसी प्रकार हम ईश्वर का विरोध करने के आक्षेप पर भी विचार करते हैं।

वेदोक्त ईश्वर विभिन्न सम्प्रदायों में वर्णित कल्पित ईश्वर नहीं है, वह सातवें आसमान अथवा चौथे आसमान पर तख्त पर बैठा हुआ ईश्वर नहीं है, जिसे उठाने केे लिए फरिश्तों की आवश्यकता पड़े। वह मनुष्य और मनुष्य केे बीच फूट डालने व हिंसा कराने वाला ईश्वर नहींं है। वह अपने-अपने क्षेत्र में रहने वाले लोगों को अकारण ही गुमराह करने वा राह बताने वाला ईश्वर नहीं है। वह अपनी ही सन्तानरूप पशु-पक्षियों को मारकर खाने का उपदेश करने वाला ईश्वर नहीं है। वह सृष्टि के विषय में नितान्त काल्पनिक एवं हास्यास्पद कहानियाँ सुनाने वाला ईश्वर नहींं है। वह कैलाश पर्वत, क्षीर सागर आदि में रहने वाला शरीरधारी भी ईश्वर नहीं है, बल्कि वेदोक्त ईश्वर ऐसी सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमती, सर्वकल्याणकारिणी एवं निराकार चेतना का नाम है, जो सृष्टि के सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल पदार्थों में पूर्णतया व्याप्त है, जो जीवमात्र का कल्याण करने के लिए ही सृष्टि की रचना करता है और ऐसा ही सब मनुष्यों को उपदेश करता है। उस ऐसे सर्वोच्च सामर्थ्यवान् ईश्वर की पूजा का अर्थ यह नहीं है कि उसे मन्दिर में जाकर प्रसाद चढ़ाया जाये, न ही यह है कि मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों में जाकर नाना प्रकार के कर्मकाण्ड किये जायें, बल्कि ईश्वर पूजा का अर्थ है कि यम-नियमों का पालन करते हुए अर्थात् पूर्ण सत्यवादी, जीवमात्र से प्रेम करने वाले, अपनी इन्द्रियों को वश में करने वाले एवं सृष्टि का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करने वाले होकर निरन्तर परोपकार करने का प्रयत्न किया जाये और ऐसा करते हुए ही ध्यान, उपासना आदि किया जाता है। जब तक ऐसा नहीं होता अथवा जो ऐसा करने का प्रयास नहीं करता, उसे ईश्वर की पूजा करने वाला नहीं मानना चाहिए। ऐसा व्यक्ति ही दुष्ट और अधार्मिक होता है। आज ऐसे ही व्यक्तियों की संख्या संसार में बहुत अधिक है, इसलिए सारा संसार दु:खी है। पूजा-नमाज और प्रार्थना के आडम्बर बहुत हो रहे हैं, कल्पित ईश्वरों पर भाषण बहुत दिये जा रहे हैं, परन्तु सत्य से इन लोगों ने सम्बन्ध तोड़ दिया है। क्या ऐसे लोग दण्डनीय नहीं होने चाहिए?

वस्तुत: ईश्वर, पूजा एवं वेद इन तीनों के सत्य स्वरूप को न समझने के कारण ही आप वेद के विषय में नितान्त भ्रान्त हैं अथवा अपनी कुरान में वर्णित हिंसादि पापों को सही ठहराने के लिए ही दुर्भावनावश वेद पर भी ऐसे आरोप लगा रहे हैं। एक ओर तो भाष्यकारों और अनुवादकों का दोष, दूसरी ओर पूर्वाग्रह और दुर्भावनावश इन भाष्यों और अनुवादों को पढ़ने वालों का दोष, इस प्रकार कोढ़ में ही खाज हो गयी है। यदि कोई वास्तव में सत्य का जिज्ञासु है, तब वह हमारे इन दो भाष्यों को पढक़र ही वास्तविकता को जान जायेगा और वेद का अनुयायी हो जायेगा, परन्तु बुद्धिहीन और पूर्वाग्रही व्यक्ति के लिए कोई औषधि संसार में नहीं है।

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