#6...तो क्या दुष्ट की पूजा करें!

 आक्षेप संख्या—२

यहाँ सुलेमान रजवी ने ऋग्वेद ७.६.३ के दो भाष्य निम्र प्रकार उद्धृत किये हैं—

Rig Veda 7.6.3 “May the fire divine chase away those infidels, who do not perform worship and who are uncivil in speech. They are niggards, unbelievers, say no tribute to fire divine and offer no homage. The fire divine turns those godless people far away who institute no sacred ceremonies.” –Tr. Satya Prakash Saraswati

पदार्थ — हे राजन् (अग्नि:) अग्नि के तुल्य तेजोमय! आप (अक्रतून) निर्बुद्धि (ग्रथिन:) अज्ञान से बंधे (मृध्रवाच:) हिंसक वाणी वाले (अयज्ञान्) सङ्गादि वा अग्निहोत्रादि के अनुष्ठान से रहित (अश्रद्धान्) श्रद्धारहित (अवृधान्) हानि करने हारे (तान्) उन (दस्यून्) दुष्ट साहसी चोरों को (प्रप्र, विवाय) अच्छे प्रकार दूर पहुँचाइये (पूर्व:) प्रथम से प्रवृत्त हुए आप (अपरान्) अन्य (अयज्यून्) विद्वानों के सत्कार के विरोधियों को (पणीन्) व्यवहार वाले (निश्चकार) निरन्तर करते हैं।

भावार्थ — इस मन्त्र में वाचकलु०— हे विद्वानो! तुम लोग सत्य के उपदेश और शिक्षा से सब अविद्वानों को बोधित करो, जिससे ये अन्यों को भी विद्वान् करें।

पदार्थ — (नि) (अक्रतून्) निर्बुद्धीन् (ग्रथिन:) अज्ञानेन बद्धान् (मृध्रवाच:) मृध्रा हिंस्रा अनृता वाग्येषान्ते (पणीन्) व्यवहारिण: (अश्रद्धान्) श्रद्धारहितान् (अवृधान्) अवर्धकान् हानिकरान् (अयज्ञान्) सङ्गाद्यग्निहोत्राद्यनुष्ठानरहितान् (प्रप्र) (तान्) (दस्यून्) दुष्टान् साहसिकाँश्चोरान् (अग्नि:) अग्निरिव राजा (विवाय) दूरं गमयति (पूर्व:) आदिम: (चकार) करोति (अपरान्) अन्यान् (अयज्यून्) विद्वत्सत्कारविरोधिन:।

भावार्थ — अत्र वाचकलु०— हे विद्वांसो यूयं सत्योपदेशशिक्षाभ्यां सर्वानविदुषो बोधयन्तु यत एतेऽपरानपि विदुष: कुर्य्यु:।

यहाँ आक्षेपकर्त्ता ने अपने शब्दों में इन भाष्यों पर कोई टिप्पणी नहीं की है, परन्तु स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती के अंग्रेजी अनुवाद के कुछ वाक्यों को रेखांकित अवश्य किया गया है, जिससे यह संकेत मिलता है कि इस पर आक्षेपकर्त्ता के वही आक्षेप हैं, जो आक्षेप क्रमांक १ में दर्शाए गए हैं। जो भी पाठक हमारे आक्षेप क्रमांक १ के उत्तर को समझ लेंगे, उन्हें इस आक्षेप का भी उत्तर स्वयं मिल जाएगा। निश्चित ही स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती का अंग्रेजी अनुवाद न तो उचित है, न पर्याप्त है और न स्पष्ट ही। स्वामी जी की समस्या यह भी हो सकती है कि अंग्रेजी भाषा में हिन्दी वा संस्कृत भाषा के गम्भीर भावों के समान कोई शब्द ही नहीं है। इस कारण से वेदादि शास्त्रों का किसी अन्य भाषा में अनुवाद करना, विशेषकर अंग्रेजी आदि निर्धन भाषाओं में अनुचित और संकटपूर्ण है। स्वामी जी को चाहिए था कि वे अंग्रेजी भाषा में ऋषि दयानन्द के भाष्य की व्याख्या करते। जहाँ उपयुक्त शब्द नहीं मिलते हैं, वहाँ और भी अधिक स्पष्ट व्याख्या की आवश्यकता होती है। दूसरा भाष्य आक्षेपकर्त्ता ने ऋषि दयानन्द का दिया है, जिस पर कोई भी आक्षेप नहीं किया गया है और हमें यही लगता कि ऋषि दयानन्द के इस भाष्य पर कोई भी बुद्धिमान् मानवतावादी असहमत हो सकता है। अब हम इस मन्त्र पर विचार करते हैं। वह मन्त्र इस प्रकार है—

न्यक्रतून्ग्रथिनो मृध्रवाच: पणीँरश्रद्धाँ अवृधाँ अयज्ञान्।
प्रप्रतान्दस्यूँरग्निर्विवाय पूर्वश्चकारापराँ अयज्यून्॥
[ऋ.७.६.३]
 
 आधिदैविक भाष्य– यह पाठकों के लिए पुस्तक रूप में ही भविष्य में उपलब्ध हो सकेगा।
 
 आधिभौतिक भाष्य— यह भाष्य आपने उद्धृत किया ही है और इस पर आपकी कोई टिप्पणी भी नहीं है।

अविद्याग्रस्त अर्थात् मूढ़ मति, हिंसा के लिए लोगों को प्रेरित करने वाले, समाज में विघटन पैदा करने वाले, अग्निहोत्रादि से पर्यावरण को शुद्ध न करने वाले, विद्या एवं मानवता पर श्रद्धा न रखने वाले, हानिकारक दुष्ट अपराधियों को राजा यदि दूर नहीं करेगा, उन्हें सन्मार्ग पर नहीं लाएगा, तो क्या उनकी पूजा करेगा, उनको दूर करने से ही किसी भी राष्ट्र वा समाज का हित हो सकता है, अन्यथा राष्ट्र और विश्व में अराजकता ही फैलेगी। इसलिए ऋषि दयानन्द का भाष्य सर्वथा उचित और कल्याणकारी है।

आध्यात्मिक भाष्य— (अग्नि:) शरीरस्थ विद्युदग्नि (अक्रतून्) [क्रतु:=कर्मनाम (निघं.२.१), प्रज्ञानाम (निघं.३.९)] जो कोशिका आदि पदार्थ निष्क्रिय वा मृत हो जाते हैं, (ग्रथिन:) जो पदार्थ विकृत वा अनिष्ट बन्धनों से युक्त होते हैं (मृध्रवाच:) [वाक्= वागेवाऽग्नि: (श.३.२.२.१३)] अनिष्टकारी अग्नि अर्थात् जिस विकृत अग्नि के द्वारा शरीर में नाना रोग हो सकते हैं (अयज्ञान्) ऐसे अवशिष्ट पदार्थ जो शरीर के लिए उपयोगी नहीं होते (अश्रद्धान्) [श्रद्धा = तेज एवं श्रद्धा (श.११.३.१.१)] जो पदार्थ तेजहीन वा दुर्बल हो चुके हैं (अवृधान्) जो पदार्थ शरीर के लिए हानिकारक हैं अर्थात् विजातीय पदार्थ (तान्, दस्यून्) वे ऐसे सभी पदार्थ शरीर को क्षीण करने वाले होते हैं, उन सभी हानिकारक पदार्थों को (प्र, प्र, विवाय) बहिर्गत अथवा नष्ट करता रहता है। ऐसे सभी पदार्थ ही अवशिष्ट रूप होकर मल-मूत्र, स्वेद, कफ, श्वास आदि के द्वारा निरन्तर नि:सृत होते रहते हैं। (पूर्व:) इन सब पदार्थों की उत्पत्ति से पूर्व से विद्यमान वह शरीरस्थ अग्नि (अपरान्) अन्य पदार्थों को (अयज्यून्) जो पदार्थ सप्तधातुओं में परिणत नहीं हो रहे, उनको (पणीन्, नि, चकार) सम्यक् क्रियाओं और बलों से निरन्तर युक्त करता रहता है।

भावार्थ— शरीर में रहने वाले विद्युत् एवं अग्नि पदार्थ शरीर की सभी क्रियाओं को संचालित करने में अनिवार्य भूमिका निभाते हैं। विद्युत् और ऊष्मा के कारण ही शरीर में अनेक छेदन और भेदन की क्रियाएँ चलती रहती हैं। भोजन के अवयवों का सूक्ष्म भागों में टूटना, पाचक रसों का निकलना, उनसे नाना प्रकार की रासायनिक क्रियाओं का होना, रसरूप हुए भोजन का आँतों के द्वारा अवशोषित होना, फुफ्फुस, हृदय और मस्तिष्क के साथ-साथ सभी नाडिय़ों और नसों का क्रियाशील होना, उत्सर्जन आदि सभी तन्त्रों का कार्य करना, बाहर से आए जीवाणुओं और विषाणुओं को रक्त के श्वेत अणुओं द्वारा नष्ट किया जाना, शरीर की कोशिकाओं में ऊर्जा की उत्पत्ति होना ये सभी कार्य विद्युत् और ऊष्मा के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। जिन-जिन मन्त्रों में भी आपने हिंसा के आरोप लगाये हैं, उन-उन मन्त्रों का इसी प्रकार उत्तर समझना चाहिए। हिंसक, चोर, डाकू, ज्ञान के शत्रु, ज्ञानी व परोपकारियों को दु:ख देने वाले, कंजूस, सामर्थ्य होने पर भी परोपकार न करने वाले, आतंकवादी एवं निर्बलों को सताने वाले जैसे लोगों को दण्ड देना ङ्क्षहसा नहीं, बल्कि सच्ची अहिंसा है, जिससे सभी प्राणी सुखी रह सकें। इस कारण हम हिंसा आदि दोषों से आरोपित अन्य मन्त्रों पर कोई भी उत्तर देना आवश्यक नहीं समझते।

आक्षेप–2 का समाधान समाप्त

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