जब हिमालय रो पड़ा...

हिमालय इस भूमंडल का एक सर्वाधिक पवित्र पर्वत रहा है। यह देव भूमि व ऋषियों की तपःस्थली के रूप में सर्वत्र विख्यात रहा है। इस महान् नगराज ने अपनी पवित्र गोद में परमयोगिराज भगवत्पाद महादेव शिवजी एवं योगेश्वरी भगवती उमा देवी के साथ योग साधना के साथ-साथ वैदिक विज्ञान के द्वारा ब्रह्मांड के गंभीर रहस्यों को उद्घाटित करते, दुष्ट दलनार्थ पाशुपत जैसे महान् अस्त्रों का निर्माण करते देखा है। इसी हिमगिरि ने परमर्षि भगवान् ब्रह्मा जी, अमित पराक्रमी भगवान् विष्णु जी एवं महान् ऐश्वर्यसंपन्न देवराज इंद्र को योग साधना के साथ-साथ वेद द्वारा भौतिक एवं आध्यात्मिक विद्याओं की गहन साधना करते देखा है। इसी की पावनी गोद में सहस्त्रों तपःपूत देवों व ऋषि-मुनियों को परमपिता परमात्मा की अमृतरूपी छाया में आनंद की अनुभूति करते देखा है। इसी की गोद से निःसृत पवित्र गंगा-यमुना आदि सरिताओं के तीर पर आर्य महापुरुषों व योगियों को योगाभ्यास एवं इसके द्वारा वेद विद्याभ्यास करते देखा है। इसी की गोद में दुष्यंत पुत्र भरत जैसे चक्रवर्ती सम्राट् पले-बढ़े एवं संस्कारित हुए थे। वैदिक धर्म के महान् संरक्षक योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी धर्म पत्नी भगवती देवी रुक्मिणी के साथ विवाहोपरान्त गर्भाधान क्रिया से पूर्व 12 वर्ष परमात्मा की साधना में मग्न रहे थे। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम, महावीर परमविद्वान् बाल ब्रह्मचारी हनुमान्, महान् धनुर्धर अर्जुनादि पांडवों एवं अनेक महापुरुषों का किसी न किसी प्रकार इस महान् पवित्र पर्वतराज से संबंध रहा है।

हे हिमालय! तुम्हें इन सभी महापुरुषों पर बड़ा गर्व था। संभवतः तुम सोचते थे कि इन महापुरुषों की संतति ऐसे ही महान् आदर्शों वाली बनी रहेगी। किंतु धीरे-धीरे इस हिमालय ने इस भारत को बर्बर विदेशी अतातायियों से पैरों तले कुचलते देखा और इसने इस भारत के कई टुकड़े होते भी देखा। यह सब दृश्य देखकर तुम घायल अवश्य हुए परंतु टूटे नहीं। तुमने तैमूर, बाबर, अकबर, औरंगजेब, डायर आदि के अत्याचारों को देखा, तब भी तुम टूटे नहीं परंतु जब कथित स्वतंत्र भारत में शासन व न्यायालयों ने वैदिक व भारतीय संस्कृति-सभ्यता पर करारी चोट की, स्वतन्त्रता के नाम पर दुराचारिणी स्वच्छन्दता को सम्मान मिला, तब तुम्हारे हृदय से आह फूट पड़ी। जब सर्वाेच्च न्यायालय ने ‘लिव इन रिलेशन’ के नाम से किसी कन्या वा विवाहिता महिला का किसी भी परपुरुष के साथ स्वेच्छया रहने को वैध ठहराया और उसमें भगवान् श्रीकृष्ण जी महाराज का नाम घसीटा गया, तब तुम्हारा हृदय टूट गया और आह भी न कर सके। तुम्हारी यह दीनदशा को देखकर प्राचीन ऋषियों व देवों की आत्मा भी भयभीत हो गयी। 

अब दिनांक 06.09.2018 को पुनः सर्वाेच्च न्यायालय ने तुम्हारे हृदय में छुरा घोंप दिया। समलैंगिकता के घोर पाप व अप्राकृतिक कुकृत्य को वैध बताकर यह सिद्ध हो गया कि यह देश मनुष्यों के रहने योग्य तो क्या, यहाँ जंगली जानवर व पशु-पक्षी भी भय खाएंगे। इस निर्णय से हिमालय का हृदय विदीर्ण होकर आहें भरने लगा। अब कल के निर्णय को सुनकर जंगली और पालतू पशु-पक्षी भी भागने लगेंगे। उन्हें भय होगा कि ये समलैंगिक कामी व स्वच्छन्द मानव शरीरधारी कहीं उन्हें ही अपनी हवस का शिकार न बना लें। ये जानवर जजों, वकीलोें, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मीडियाकर्मियों, मानवाधिकारवादियों, उच्च प्रबुद्ध कहाने वाले, सभ्य व प्रगतिशील दिखने वालों को देखकर विशेष रूप से भागेंगे, क्योंकि स्वच्छन्दता जन्य कामज्वर इन्हें ही अधिक सता रहा है। स्वच्छन्द कामुक भोजन, कामुक अध्ययन, कामुक दर्शन-श्रवण फिर शासन व न्यायालयों के कामुक निर्णयों की मुहर, तब दुधमुँही बच्चियों पर अत्याचार क्यों नहीं होंगे? अब तो घरेलू चिड़िया व चिड़ा जैसे कामी पक्षी भी इस कामी मानवदेहधारी जानवर को देख कर चीं-चीं करते भाग जाया करेंगे। अब उन्हें जितना भय अपने शिकारी जानवर और मनुष्य का नहीं होगा, उतना भय शिक्षा व सभ्यता का आवरण ओढ़े इस बर्बर कामी व स्वच्छन्द कथित मनुष्य का होगा। इस कथित मनुष्य को जो कुछ भय था, वह दूर हो गया है। देश में राष्ट्रवाद का शंखनाद करने वाले संगठन वा नेता मौन हैं, मानो उनकी वाणी को लकवा मार गया है। उधर एक भगवाधारी समलैंगिकता का पुरोधा अग्निवेश प्रसन्नता से झूम रहा है। देश-विदेश का मीडिया आनंद मना रहा है। इस समलैंगिकता के पुरोधा नकली बाबा ने महान् ब्रह्मचारी महर्षि दयानंद सरस्वती व आर्य समाज के सिद्धांतों की अंत्येष्टि कर डाली है। दुर्भाग्य से इस बाबा के समर्थक स्वयं को आर्यसमाजी व महर्षि दयानंद का भक्त कहते हैं। इन्होंने आर्य समाज को खंड-खंड कर डाला है, तो कुछ महानुभाव एकता का प्रयास कर रहे हैं। ये संगठनवादी समलैंगिकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, देशद्रोह सबके साथ मिलकर संगठन का परिचय देना चाहते हैं। आर्य समाज के नियम व वैदिक आर्ष सिद्धांतों की चिता जले, इसकी किसी को कोई चिंता नहीं।

हे हिमालय! तुम्हें कुछ आशा थी, तो ब्रह्मचर्य व वेदविद्या के इस युग के महान् प्रणेता महर्षि दयानंद के अनुयायी आर्य समाज से किंतु वह भी इन कामी बाबाओं के कारण दिशाहीन होकर भटक रहा व विनाश के पथ पर अग्रसर है। कुछ महानुभव सोशल मीडिया पर गुरुकुलों में समलैंगिकता होने का प्रचार कर रहे है, यह बात सुनी मैंने भी है परन्तु अब सभी कामी चोर की भांति नहीं बल्कि अकड़ कर ये पाप करेंगे। हे पर्वतराज! मैं तुम्हारे दर्द को जानता हूं। मेरे जैसे अनेक देशभक्त व वेदभक्त भी तुम्हारे दर्द को अनुभव कर रहे हैं। मैं अपने वेदविज्ञान के द्वारा संपूर्ण पापान्धकार को मिटाने की दिशा में शनैः-2 आगे बढ़ रहा हूं परंतु लगभग जन्म से रुग्ण शरीर व परायों के साथ अपनों का भी विरोध इसमें भारी बाधा उत्पन्न कर रहा है। मैंने जीवन में असत्य भाषण व कर्म को करने की इच्छा भी नहीं की, तब शेष जीवन में भी ऐसा करने की सोच भी नहीं सकता, भले ही कोई भी विपत्ति क्यों न आये? मैंने तुम्हारे दर्द को मिटाने की अचूक दवा को तैयार तो कर लिया है परंतु इसके विस्तृत अनुसंधान, प्रचार व प्रसार में न केवल देश, वेद, ऋषियों व देवों का दर्द अपने हृदय में समेटे ऊर्जावान्, स्वस्थ, बलवान् युवा पीढ़ी का साथ चाहिए, अपितु पर्याप्त संसाधनों के लिये निःस्पृह भामाशाह भी चाहिए। आज जो बौद्धिक दास विदेशी ज्ञान विज्ञान व सभ्यता को अपना आदर्श मानते हैं तथा प्राचीन भारतीय व वैदिक ज्ञान विज्ञान को दीन व निकृष्ट मानकर स्वयं को ही मूर्खों का वंशज मानते हैं, उनके मनोराग व बौद्धिक दासत्व को नष्ट करने की दवा मेरे पास है, जो चाहे, आकर ले सकता है।

हे नगराज! कैसी विडंबना है कि मैं इन अभागे भारतीयों को महाबुद्धिमान् व पवित्रात्मा पूर्वजों का वंशज बताता हूं, तो ये मंदबुद्धि व मनोरोगी भारतीय मुझे ही गाली प्रदान करते हुए घोषणापूर्वक कहते हैं कि नहीं.... हम तो मूर्खों के वंशज हैं, हम बन्दर आदि पशुओं के वंशज हैं। ऐसे ही अभागे समलैंगिकता व ‘लिव इन रिलेशन’ जैसे स्वच्छन्दी कानूनों पर नग्न नृत्य करते हैं। ये कानून तो उदाहरण है, अभी तो बौद्धिक दासत्व व निकृष्ट पशुता का प्रारम्भ है, अभी तो कुछ सम्बन्ध पवित्र बचे हैं, धीरे-2 कानून इन्हें भी नष्ट भ्रष्ट कर देंगे। असुरों राक्षसों व पिशाचों के आत्मा भी इन कथित प्रगतिशीलों के आचरण पर लजायेंगे। परंतु हे हिमालय! धैर्य रखो, मेरे पास इनके सुधारने के उपाय है, संभवतः हजारों सज्जन देशभक्त भी अभी इस आर्य समाज, हिन्दू समाज वा देश में विद्यमान हैं। वे एक होकर वैदिक ज्ञान-विज्ञान के ध्वज के नीचे आकर इस दासत्व के विरुद्ध संघर्ष अवश्य करेंगे, ऐसी मैं आशा करता हूं। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो मैं भी तेरी भांति टूट जाऊंगा। इस विषम परिस्थिति व दुर्बल स्वास्थ्य एवं संसाधनों के अभाव में मैं भी कहीं शान्त हो जाऊँगा।
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