भूमिका भाग–2 । वेदों पर किये गये आक्षेपों का उत्तर
आक्षेपों का समाधान करने से पूर्व हम यहाँ यह बताना चाहेंगे कि वेद भाष्यकारों ने वेदों के भाष्य करने में क्या-क्या भूलें की हैं। वेद की ईश्वरीयता एवं सर्वविज्ञानमयता को अच्छी प्रकार समझने के लिए ‘वैदिक रश्मि विज्ञान’ ग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिए। जब तक वेद का सही स्वरूप समझ में नहीं आएगा, तब तक संसार का कोई भी वेदभाष्यकार वेद के साथ न्याय नहीं कर सकता। जब भाष्यकार ही वेद के साथ अन्याय कर देगा, तब उन भाष्यों को पढ़ने वाले पाठक भी निश्चित रूप से भ्रमित ही होंगे। जो पाठक भाष्यकार विद्वानों के प्रति विशेष श्रद्धा रखने वाले होंगे, वे दूषित भाष्य पढ़कर भी मौन बैठे रहेंगे। जो पाठक जिज्ञासु प्रवृत्ति के होंगे, वे दूषित भाष्यों को पढक़र वेदों से विरक्त हो जायेंगे अथवा जिज्ञासा भाव से वैदिक विद्वानों से समाधान करने की इच्छा करेंगे, परन्तु जो पाठक पूर्वाग्रहग्रस्त होकर वेद के विरोधी होंगे अथवा अपने वेदविरुद्ध मजहब को वेद की अपेक्षा श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहेंगे, वे वेद के दूषित भाष्यों को लेकर तीक्ष्ण व घृणित प्रहार करने का प्रयास करेंगे। ऐसे लोग अपने मजहबी ग्रन्थों के बड़े-बड़े दोषों को छुपाकर वेदभाष्यों के दोषों को उछालेंगे और जहाँ दोष नहींं भी हैं, वहाँ भी अपनी काकवृत्ति के कारण दोष निकालने का प्रयास करेंगे।
संसार में इस समय तीनों प्रकार के लोग विद्यमान हैं। इनमें से मध्यम लोग ही निर्दोष हैं, अन्य दोनों ही प्रकार के लोग दोषी हैं।
भाष्यकारों को भाष्य करते समय सबसे मौलिक बात यह समझनी चाहिए कि सर्वप्रथम वेद का वेद से ही अर्थ करने का प्रयास करना चाहिए। हम एक जीवहिंसा प्रकरण को ही यहाँ लेते हैं और इसके लिए वेद के कुछ प्रमाण यहाँ उद्धृत करते हैं—
यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम। तं त्वा सीसेन विध्याम:॥ (अथर्व.1.16.4)
अर्थात् तू यदि हमारी गाय, घोड़ा वा मनुष्य को मारेगा, तो हम तुझे सीसे से बेध देंगे।
मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्पद:॥ (अथर्व.11.2.1)
अर्थात् हमारे मनुष्यों और पशुओं को नष्ट मत कर। अन्यत्र वेद में देखें-
इमं मा हिंसीर्द्विपाद पशुम्। (यजु.13.47) अर्थात् इस दो खुर वाले पशु की हिंसा मत करो।
इमं मा हिंसीरेकशफं पशुम्। (यजु.13.48) अर्थात् इस एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो।
यजमानस्य पशुन् पाहि। (यजु.1.1) अर्थात् यजमान के पशुओं की रक्षा कर।
आप कहेंगे यह बात यजमान वा किसी मनुष्य विशेष के पालतू पशुओं की हो रही है, न कि हर प्राणी की। इस भ्रम के निवारणार्थ अन्य प्रमाण—
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। (यजु.36.18)
अर्थात् मैं सब प्राणियों को मित्र की भांति देखता हूँ।
मा हिंसीस्तन्वा प्रजा:। (यजु.12.32) अर्थात् इस शरीर से प्राणियों को मत मार।
मा स्रेधत। (ऋ.7.32.9) अर्थात् हिंसा मत करो।
यजुर्वेद १.१ में गाय को अघ्न्या कहा है अर्थात् गाय सदैव अवध्य है। इन सब प्रमाणों के रहते अगर कोई भाष्यकार वेद में पशु-हिंसा, पशु-बलि अथवा मांसाहार जैसे पापों का विधान करता है, तो वह भाष्यकारों का भारी अपराध है, न कि वेद पर आक्षेप करने वाले का। कोई बुद्धिमान् व्यक्ति भी अपने ग्रन्थ में दो परस्पर विरुद्ध बातों को स्थान नहीं दे सकता, तब ईश्वरीय ग्रन्थ वेद में परस्पर विरोधी बातों का होना सम्भव नहीं है। इस कारण जहाँ भी वेदभाष्य में हिंसा और मांसाहार जैसे पाप दिखाई देते हों, तो वह भाष्यकार की बुद्धि का दोष है, न कि वेद का। वेदभाष्यकार को दूसरी बात यह समझनी चाहिए कि जब वेद से वेद का अर्थ न सूझता हो, तो भाष्यकार को वैदिक पदों के यथार्थ विज्ञान को जानने के लिए वेद की विभिन्न शाखाओं, ब्राह्मण ग्रन्थों एवं आरण्यकों में वैदिक पदों के निर्वचनोंं एवं आख्यानों के रहस्यों को समझने का प्रयास करना चाहिए।
हम यहाँ उदाहरण के लिए कुछ प्रमाण उद्धृत करते हैं। महर्षि जैमिनी न कहा है— ‘पशवोऽयं पृथिवीलोक:’ (जै.ब्रा.१.३०७)। महर्षि तित्तिर ने कहा है- ‘प्राणा: पशव:’ (तै.सं.५.२.६.३.)। महर्षि याज्ञवल्क्य का कथन है- ‘प्राणो वै पशु:’ (शत.३.८.४.५.)। उधर मैत्रायणी संहिता ४.३.५.में लिखा है- ‘पशवश्छन्दांसि’ और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है- ‘पशवो वै सविता’ (शत.३.२.३.११.)। यहाँ पृथिवी, सूर्य, प्राण एवं छन्द रश्मि आदि पदार्थों को पशु कहा है, तब वेदभाष्य करने वाले को चाहिए कि वो वेद में पशु शब्द आते ही उसका अर्थ लोकप्रचलित पशु न करे। यदि वह ऐसा करता है, तो वह अपनी अज्ञानता वा मूर्खता का ही परिचय दे रहा है और इसके कारण कितने ही पाठक वेदविरोधी हो जाते हैं। इसका दोष भी भाष्यकार के सिर पर ही आता है। अब हम ‘गौ:’ पद के विषय में कुछ प्रमाण प्रस्तुत करते हैं— अन्तरिक्षं गौ: (ऐ. ब्रा. ४.१५), असौ (द्यौ:) गौ: (जै. ब्रा. २.४३९), इयं (पृथिवी) वै गौ: (काठ. सं. ३७.६), प्राणो हि गौ: (शत. ४.३.४.२५), गौर्वै वाक् (मै. सं. ४.२.३)। यहाँ इन प्रमाणों को देखने से स्पष्ट होता है कि पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं द्युलोकों को भी वेद में गौ कहा गया है। इसी प्रकार वाक् तत्त्व एवं प्राण तत्त्व भी गौ कहे गये हैं। अब कोई वेदभाष्यकार किसी वेदमन्त्र में ‘गौ’ पद आते ही उसका अर्थ गाय नामक प्राणी कर दे, तो यह भाष्यकार की ही मूर्खता कही जायेगी। अब हम ‘अश्व:’ पद पर विचार करते हैं— असौ वा आदित्योऽश्व: (तै. ब्रा.३.९.२३.२), वज्रोऽश्व: (शत. १३.१.२.९), इन्द्रो वा अश्व: (कौ. १५.४), असौ वा आदित्योऽअश्व: (तै. ब्रा. ३.९.२३.२.)।
इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वेद में अग्नि, सूर्य, तीक्ष्ण विद्युत् एवं वज्र रश्मियों को भी अश्व कहा गया है। ऐसी स्थिति में कोई वेद का अध्येता वेद में ‘अश्व:’ पद देखकर उसका अर्थ घोड़ा करने लगे, तो उसे अनाड़ी के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है? इसी प्रकार अनेकत्र गोमेध वा अश्वमेध यज्ञों की चर्चा सुनी जाती है। यहाँ ‘मेधृ मेधाहिंसनयो: संगमे च’ धातु का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार यह धातु जानने, समझने, मार डालने, दु:ख देने और संगति करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है। तब कोई गोमेध वा अश्वमेध पदों से गाय अथवा घोड़े की बलि का विधान करे, तब उसे क्यों न पूर्वाग्रही मांसाहारी समझें?
इस प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थों को समझे बिना यदि कोई वेद का अर्थ करता है, तब वह वेद की वैसी ही दुर्गति करेगा, जैसी कोई बन्दर चाकू लेकर किसी रोगी की शल्यक्रिया करने लगे। दुर्भाग्य से आज ऐसे बन्दरों की कोई कमी नहीं है।
जब ब्राह्मण आदि ग्रन्थों से भी वेदार्थ नहीं सूझता हो, तब भाष्यकार को चाहिए कि वह निरुक्त के निर्वचनों का उपयोग करे, क्योंकि निरुक्त वेद के पदों की व्याख्या को समझाने के लिए ही रचा गया महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो वेद के किसी भी अध्येता को वेद के पदों का रूढ़ अर्थ करने से बचाता है और उन पदोंं के महान् विज्ञान का उद्घाटन करता है। आज दुर्भाग्य की बात यह है कि जो ग्रन्थ वेद को रूढ़िवाद से निकालकर महान् विज्ञानवाद में ले जाता है, वही ग्रन्थ इसके सभी भाष्यकारों द्वारा रूढ़िवाद के गहरे गर्त में डाल दिया गया है। तब निरुक्त के ऐसे भाष्यों के आधार पर कोई वेद को कैसे समझ पाएगा। इसके लिए वेद के अध्येताओं को निरुक्त का हमारा वैज्ञानिक भाष्य ‘वेदार्थ-विज्ञानम्’ अवश्य पढ़ना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है।
इन ग्रन्थों के अतिरिक्त वेदभाष्यकार को व्याकरण के ज्ञान की भी कुछ आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में उसे धातु-प्रत्यय के आधार पर वैदिक पदों की व्युत्पत्ति करने का प्रयास करना चाहिए, परन्तु किसी भी वैयाकरण को यह नहीं भूलना चाहिए कि एक ही धातु के अनेक प्रकार के अर्थ हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में उसे किसी धातु के तर्कसंगत अर्थ की कल्पना करनी चाहिए और कोई प्रत्यय अनुकूल नहींं बन पा रहा हो, तो किसी नवीन प्रत्यय की कल्पना कर लेनी चाहिए। इसी प्रकार कहीं-कहीं नवीन धातुओं की कल्पना भी की जाती है, परन्तु यह सब कार्य कोई सत्त्वगुणसम्पन्न प्रातिभ ज्ञानयुक्त विद्वान् ही कर सकता है, अन्यथा उसकी कल्पना वेद को भी काल्पनिक और हास्यास्पद भी बना देगी। यहाँ भाष्यकार वा वेद के अध्येता को यह भी न भूलना चाहिए कि वेद व्याकरण के लिए नहीं है, बल्कि व्याकरण वेद के लिए है। लोक और वेद दोनों ही व्याकरण के अधीन नहीं हैं, बल्कि व्याकरण लोक और वेद दोनों के अधीन है। महर्षि पाणिनि आदि महावैयाकरणों ने वेद और लोक में प्रचलित पदों को नियमबद्ध करने का प्रयास किया, परन्तु वेद तो क्या लौकिक पदों को भी सम्पूर्ण रूप से नियमबद्ध नहीं किया जा सका। इसलिए वेद के लिए ‘छन्दसि बहुलम्’ का अनेकत्र प्रयोग किया और ‘व्यत्ययो बहुलम्’ सूत्र का भी अपने ग्रन्थ में समावेश किया। लौकिक पदों को भी अनेकत्र शिष्टों का प्रयोग मानकर साधु माना। ‘पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्’ जैसे सूत्र की रचना की, तो अनेकत्र अनेक पदों को निपातन से व्युत्पन्न माना। गणपाठ में अनेक गणों को आकृतिगण मानकर उस गण में अनेक पदों को सम्मिलित करने को अवकाश रखकर यह स्पष्ट कर दिया कि उस समय लोक में प्रचलित पदों को भी व्याकरण के नियमों में पूर्ण रूप से नहीं बाँधा जा सकता। ऋषियों द्वारा इतनी स्पष्टता करने पर भी यदि कोई केवल प्रकृति एवं प्रत्यय के आधार पर वेदार्थ करने की हठ करे, तो उसका वेदभाष्य पाठकों को भूलभुलैया में डालने वाला ही सिद्ध होगा।
दुर्भाग्य से वेद के अनेक अध्येता संस्कृत भाषा के सामान्य ज्ञान के आधार पर ही बिना ब्राह्मण, आरण्यक, निरुक्त आदि आर्ष ग्रन्थों को समझे वेदार्थ करने बैठ जाते हैं, तब वे वेद की दुर्गति क्यों नहीं करेंगे? इनकी रही सही कमी वेद के अंग्रेजी आदि भाषाओं में किए गये अनुवादक पूर्ण कर देते हैं और वे वेद का सम्पूर्ण विनाश करते हुए भी वेद के भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हो जाते हैं। ऐसे ही भाष्यकारों व अंग्रेजी अनुवादकों के भाष्य वा अनुवाद को आधार बनाकर आक्षेपकर्त्ताओं ने वेदों पर अधिकांश आक्षेप किये हैं। ऐसी स्थिति में अधिक दोषी भाष्यकार वा अनुवादक ही सिद्ध होते हैं। इतने पर कोई इन भाष्यकारों वा अनुुवादकों के विरुद्ध मुख खोलने के लिए उद्यत नहीं है, क्योंकि वह उन्हें महान् विद्वान् मानता है और उनका कट्टर भक्त हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ये भाष्यकार व अनुवादक अच्छे विद्वान् थे। उन्होंने बहुत उपयोगी व महत्त्वपूर्ण अनेक ग्रन्थ लिखे, परन्तु वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ एवं निरुक्त जैसे जटिल ग्रन्थों पर कलम चलाकर उन्होंने भारी भूल कर दी। उनकी यह भूल वेद के लिए नासूर सिद्ध हो रही है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वेद भाष्य प्रक्रिया के इन सभी चरणों की सफलता के लिए योगाभ्यास अति आवश्यक है और योगाभ्यास दिखावे के लिए आँख बन्द करने का नाम नहीं है और न योग पर बड़े-बड़े प्रवचन देने वा लेख वा ग्रन्थ लिखने का नाम ही योग है। योग यम व नियमों की भूमि से उत्पन्न होता है। आश्चर्य की बात है कि आज झूठे, छली, कपटी, काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों के भण्डार योग के प्रणेता बन रहे हैं और करोड़ों, अरबों की सम्पत्ति के स्वामी श्रीमन्त बने हुए हैं। मांसाहारी व अण्डा-मछली खाकर अपने पेट को श्मशान बनाने वाले, शराबी व विषयलोलुप लोग मात्र कुछ शब्दज्ञान का आश्रय लेकर वेद के भाष्यकार बन रहे हैं, वहींं दूसरी ओर ईर्ष्या, अहंकार, द्वेष, काम व क्रोध आदि की अग्नि में झुलस रहे वाक्पटु लोग भी वेदों पर कलम चलाने का साहस करते वा योग की प्रेरणा देते देखे जाते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में वेद का सर्वनाश क्यों नहीं होगा? वस्तुत: यम व नियमों को सिद्ध किये बिना वेद वा धर्म वा विज्ञान का मर्म जाना ही नहीं जा सकता। इस कारण वेद केअध्येता को चाहिए कि वह सर्वप्रथम सत्य, अहिंसा व ब्रह्मचर्यादि व्रतों का सेवन करे और ईश्वर प्रणिधानपूर्णक जीवन जीने का प्रयास करे।
वेद को समझने की इस क्रामिक प्रक्रिया का इतना परिचय कराने के पश्चात् अब हम सर्वप्रथम वेदों पर किए गये आक्षेपों का क्रमश: उत्तर देना प्रारम्भ करते हैं—
क्रमशः...