अहिंसा परमो धर्म:


ईश्वर कृपा से धरती के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य में इतना विवेक जग जाए कि वह संसार के सभी प्राणियों के प्रति दया व प्रेम का व्यवहार करना सीख जाए। जरा विचारें कि वह कोई कसाई किसी पशु को मारता है, चाहे वह धर्म के नाम पर, स्वाद के लिए, व्यापार के लिए अथवा उदरपूर्ति के लिए, उस समय कसाई वा मांस बेचने व खाने वाले प्रसन्न होते हैं और मूक निरीह पशु करुण क्रन्दन करते हैं, छटपटाते हैं, खून के नाले बहते हैं, कौवे, गिद्ध व कुत्ते आदि भी मांस के लालच में दौड़-2 कर आते हैं, मक्खियां भिनभिनाती हैं। कहीं हड्डियां बिखरी होती हैं, कहीं चमड़ा, कहीं मांस के लोथड़े, कहीं गोबर व मूत्र, कहीं शरीर के भीतरी अंग। कितना घृणित व गन्दा दृश्य होता है, परन्तु मांस खाने वाला मसाले व तेल मिलाकर उसे चटरवारे के साथ खाता है, तो कोई इससे ईश्वर वा खुदा को प्रसन्न होता मानकर स्वयं को धर्मात्मा मानता है। धर्म के नाम पर पशु मारने व मांस खाने पर वे भी बधाई देते हैं, जो कभी न तो मांस खाते हैं और न मांसाहार के समर्थक हैं। क्या करें धर्म के नाम पर बुद्धिहीनता का यह खेल निराला है। क्या वह प्राणी भी उसी परमात्मा, जिसने हम सबको पैदा किया, का ही पुत्र नहीं है? तब क्या सभी प्राणी भाई-भाई नहीं है? अहो! सोचो? उसका भाई ही भाई के रक्त का प्यासा हो गया। 

हे बुद्धिवाले मेरे प्यारे मानव विचारो! अपने अन्तरात्मां से विचारों कि क्या मांसाहार व पशुबलि वास्तव में धर्म है अथवा घोर पाप? मुझे विश्वास है कि आपका निर्मल आत्मा सत्य को स्वयं प्रकट कर देगा। पशुओं के शरीर से निकलने वाली पेन वेब्स न केवल वायुमण्डल अपितु सम्पूर्ण पृथिवी व ब्रह्माण्ड को प्रभावित करती हैं। इस प्रभाव से पर्यावरण क्षत-विक्षत होता है, नाना प्राकृतिक प्रकोप आते हैं, नाना रोंगों का जन्म होता है, मन में काम, क्रोध, हिंसा के भाव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मांसाहार इस पृथिवी के सर्वाधिक दुःख देने वाला एवं अशान्ति का ताण्डव पैदा करने वाला है। अहो! किसी भूत प्राणी को हम एक मिनट के लिए भी जीवित नहीं कर सकते, तब उसे मारने का हमें क्या अधिकार है?


- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

Recent post

गणतन्त्र दिवस की सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ प्यारे देशवासियो! यह दिवस नाच-गान का दिन नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का दिन है। क्या हम आ...