जिन्दादिल जागो, मुर्दों से रही न कोई आस



प्यारे देशवासियो! आज आपकी संस्कृति व सभ्यता व आदर्शों को चुन चुन कर नष्ट किया जा रहा है। कहीं न्यायालय (?) तो कहीं संसद। जिसे अवसर मिलता है, इस राष्ट्र के आत्मा को क्षत विक्षत करने लगता है। ‘लिव इन रिलेशन’ जैसे पापी निर्णय पर आप मौन रहे, समलैंगिकता के दुराचार को सदाचार बताने पर आपकी नींद नहीं खुली और अब विवाहेत्तर यौन सम्बन्धों को वैध बताने पर भी आपमें कोई हलचल नहीं।
हे राष्ट्र व संस्कृति के नाम पर मेज पीट-2 कर भाषण देने वाले भाइयो व बहिनो! क्या आपके शरीर में प्राण संचार हो रहा है अथवा सर्वथा बन्द हो गया है? यदि नहीं, तो आप क्यों इन पापों के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं करते हो? टी. वी. चैनलों पर आये दिन सुर्खियां बटोरने वालो! क्यों आप मीडिया के माध्यम से इन निर्णयों का विरोध करते? देश के जीवित सांसदो! क्यों आप इस पापी निर्णय के विरुद्ध एकजुट होकर संसद में बिल लाने का प्रयास नहीं करते? करोड़ों, अरबों ही नहीं, खरबों की सम्पदा के ढेर पर बैठे कथित धर्माचार्यो वा समाज सुधारको! क्यों आप अपनी शक्ति व धन का प्रयोग मां भारती की अस्मिता की रक्षा में व्यय नहीं करते?
हे हिन्दू धर्माचार्यो! हे मौलवियो! हे पादरियो! हे ज्ञानी महानुभावो! हे बौद्ध व जैन मतावलम्बी साधु व साध्वियो! आप अपने-2 सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से ही सोचो! क्या कोर्ट के ये पापपूर्ण निर्णय आपको निन्दनीय नहीं लगते? यदि हाँ, तो उठो, इस पाप के विरुद्ध खड़े हो जाओ! सांसदों को विवश करो, राष्ट्रपति को निवेदन करो, कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करो, युवा पीढ़ी को बचाओ, पारिवारिक ढंाचे की रक्षा करो अन्यथा सब लुट जायेगा। यदि आप यूं ही सोते रहे, तो ये अन्यायालय न जाने इस देश को कितना पतित करेंगे? वैसे भी सब कुछ लुट गया है, अब बचा ही क्या है? इस अभागे देश की मिट्टी का एक-2 कण, नदियों व समुद्रों के जल तथा वायुमण्डल का एक-2 अणु पापियों के पाप से दूषित हो गया है। धर्मात्मा व सज्जनों के लिए अब यहाँ रहना, यहाँ तक कि इसके वायुमण्डल में श्वांस लेना भी दुष्कर हो गया है।
जो अपने को वामपंथी, नास्तिक वा प्रगतिशील मानते हैं, उन्हें क्या ये पशुता के कानून उचित प्रतीत होते हैं? यदि नहीं, तो उन्हें भी उठना चाहिए और यदि वे इन्हें उचित मानते हैं, तो उन्हें विवाह आदि परम्पराओं से सर्वथा मुक्त होकर पूर्णरूप से पशु बन जाना चाहिए, ताकि कोई बन्धन रहे ही नहीं।
मेरे भारत के सज्जन बन्धुओ व बहनो! यदि आपको अपनी संस्कृति व धर्म से प्यार है, तो उठो, अन्यथा आपकी पीढ़ी खून के आंसू बहायेगी अथवा निर्लज्ज पशु बन जायेगी। मैं तो शरीर से लगभग जन्म से ही अस्वस्थ रहा, धन मेरे पास नहीं है, संगठन भी नहीं है। यदि शरीर भी स्वस्थ व बलवान् होता, तो देश को जगाने के लिए यायावर बन कर निकल पड़ता, परन्तु मैं विवश हूँ। केवल लेखनी ही चलाने तक सीमित हूँ। कभी-2 मन कहता है कि बौद्धिक दासता के पापपंक में डूबे देश को मरता छोड़ पाण्डवों की भाँति हिमालय के लिए अन्तिम यात्रा पर निकल जाया जाए। अब वेद विज्ञान पर अनुसंधान करने की इच्छा भी इस पापी देश में मरती जा रही है।
शोक है! इस अभागे देश पर! जब महाभारत युद्ध तथा स्वयं के कुल के नाश को भगवान् योगेश्वर श्री कृष्ण जैसे महाप्रतापी महामानव नहीं रोक सके, तब मेरा सामर्थ्य ही क्या है? पुनरपि उन्होंने अपना पूर्ण पुरुषार्थ किया और मैं उनका सच्चा अनुयायी हूँ, तो मुझे भी पुरुषार्थ करना चाहिए, यही सोच कर अभी लगा हूँ। काश! योगेश्वर श्री कृष्ण जी जैसे सुदर्शनधारी, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जैसे धनुर्धर, भगवान् महादेव शिव जैसे पाशुपत अस्त्र धारी, भगवान् ब्रह्मा जैसे ब्रह्मास्त्र धारी, वज्रपाणि देवराज इन्द्र, महावीर अर्जुन जैसे योद्धा, महावीर वज्रांग हनुमान् व महाबली भीम जैसा कोई धर्मात्मा योद्धा आज इस भारत में होता, तो देश में यों पापाचार नहीं बढ़ता। परन्तु अब ये नाम ही बचे हैं। इस कारण मैं इनके भक्तों का आह्वान करता हूँ कि उठो और अपनी आस्मिता को बचा लो। पत्र अभियान प्रारम्भ करो, लेखन द्वारा सबको जगाओ। आशा है आपका स्वाभिमान मरा नहीं होगा।

✍️ आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

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हे राम...


कल दूरदर्शन पर सर्वोच्च न्यायालय (?) के उस निर्णय, जिसमें विवाहेतर सम्बन्ध (व्याभिचार) को अपराध मुक्त घोषित किया है, का हृदय विदारक समाचार सुनकर दंग रह गया। तभी से बेचैनी रही कि कहीं इस देश को नष्ट करने के पीछे कोई घातक षड्यन्त्र तो नहीं चल रहा है, जिसने न्यायालय, संसद, मीडिया सभी को अपने जाल में फंसा रखा है। कभी ‘लिव इन रिलेशन’, कभी ‘समलैंगिकता’, तो अब यह धूर्ततापूर्ण निर्णय। उधर संसद द्वारा कभी शाहबानो तो कभी SC/ST Act पर किए गये फैसले, कहीं गो आदि पशुओं की निर्मम हत्या, तो कहीं भारतीय इतिहास व वेदादि शास्त्रों की अपनों ही द्वारा भर्त्सना।
         अहो! यह कैसी स्वतन्त्रता है, जहाँ प्रत्येक आदर्श का दम घोंटा जा रहा है, हर न्यायसंगत बात को आसुरी से भी निकृष्ट कानूनों द्वारा कुचला जा रहा है, जाति व सम्प्रदाय के नाम पर शासकीय व सामाजिक भेदभाव (आरक्षण व छूआछूत) के द्वारा समाज को नष्ट किया जा रहा है। महिला-पुरुष, माता-पिता व सन्तान, निर्धन-धनी, शहरी व ग्रामीण, सबके बीच खाई खोद कर सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है। इधर कोर्ट लगातार ब्रह्मचर्य व सदाचार की गौरवशाली परम्पराओं को एक-2 करके जीवित जला रहा है।
       हे राम! आप तो मर्यादा पुरुषोत्तम एवं वेदवेदांग विज्ञान के महान् ज्ञाता भगवत्स्वरूप थे, परमपिता परमात्मा की पावन गोद में सदैव रमण करने वाले सम्पूर्ण प्राणी-जगत् के परिपालक व रक्षक थे। आपने उस समय के दुष्ट रावण, जो वर्तमान नेताओं, न्यायाधीशों व अन्य कथित प्रबुद्धजनों व कथित राष्ट्रभक्तों से सैकड़ों गुना श्रेष्ठ था, तथा उसकी बहिन शूपर्णखा को उनकी स्वच्छन्द कामुक प्रवृत्ति के लिए दण्ड दिया था, परन्तु आज हे राम! आपके इस अभागे राष्ट्र में त्रेतायुग के राक्षसों से कई गुने भंयकर व कामी राक्षसों का निर्लज्ज ताण्डव हो रहा है।
         आज द्वापर के दुःशासन, दुर्योधन, शकुनि व कर्ण की चौकड़ी द्वारा पतिव्रता रजस्वला धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपत्नी (केवल धर्मराज की, न कि पांचो पाण्डवों की) महारानी द्रौपदी का चीरहरण हुआ था परन्तु आज तो सब ओर यह चौकड़ी कुण्डली मारे दिखाई दे रही है। उस समय तो एक व्यक्ति तो था, जो उन्हें तथा उस समय मूकदर्शक बने महापुरुषों को धिक्कार रहा था। आज वो ऐसा महात्मा विदुर भी नहीं दिखाई दे रहा। कोई चौकड़ी के सदस्य हैं, तो कोई घृतराष्ट्र, तो कुछ एक भीष्म, द्रोण व कृपाचार्य के समान विवश हैं।
        उस समय तो वैदिक धर्म के महान् संरक्षक योगेश्वर भगवत्पाद श्रीकृष्ण ने दुष्ट जनों को दण्ड दिया था परन्तु आज वे कृष्ण भी तो कहीं नहीं हैं। आज तो उन योगेश्वर को भी उनके ही नादान भक्तों के द्वारा कन्याओं के साथ नचाया व रास रचाया जा रहा है, उन्हें भी राधा का प्रेमी व गोपियों के साथ यौनाचार करने वाला बताया जा रहा है।
          हे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम! तपस्वी महामना शम्बूक बध व गर्भवती देवी सीता जी को घर से निकालने के मिथ्या दोष तो आप पर भी आपके ही नादान भक्तों ने मढ़ दिये परन्तु भगवान् श्री कृष्ण, भगवान् शिव, देवराज इन्द्र, भगवान् ब्रह्मा आदि पूज्य भगवन्तों का चरित्र हनन तो घृणास्पद स्तर तक इनके ही नादान भक्तों ने पहुँचा दिया है। कोर्ट कभी-2 उस मिथ्या दोषों को वास्तविक इतिहास मानकर पापपूर्ण निर्णय दे रहे हैं और भविष्य में क्या होगा कौन जाने?
        हे वैदिक धर्म के महान् प्रतिपालक भगवन् श्री राम! कोर्ट व संसद के फैसलों से मेरे जैसा वेदानुरागी राष्ट्रभक्त एवं सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार समझने वाला बहुत आहत है। कल के फैसले से मेरा शरीर शिथिल हो रहा है, मस्तिष्क चकरा रहा है। मैं जिन कथित प्रबुद्धों को अपने वेदविज्ञान के द्वारा बौद्धिक दासता की बेड़ियों से मुक्त करना चाहता हूँ वे ही मेरे मूर्ख भाई आज कहाँ जा रहे हैं, उन्हें ये नये-2 कानून कुमार्ग पर ले जा रहे हैं। हे राम! नये-2 कानून व न्यायालयों के निर्णय आपके आदर्शों की हत्या कर रहे हैं। देश के रखवाले मूकदर्शक है।
         हे राम! इस देश की संस्कृति परायी स्त्री को माता समझती थी परन्तु आज यह क्या हो रहा है? जिस पतिव्रत धर्म के कारण भगवती देवी सीता, सती सावित्री, सती अनसूया, देवी रुक्मिणी जैसी महान् नारियां विश्व पूज्य रहीं। जिसके लिए रानी पद्मिनी व रानी कर्मवती जैसी अनेकों क्षत्राणियों ने अपने को अग्नि में आहुत कर दिया, आज हमारे न्याय के मन्दिर उस पतिव्रत व पत्नीव्रत धर्म की चिता जला रहे हैं अर्थात् ये कानूनवेत्ता वा कानून के रखवाले इन देवियों की हत्या कर रहे हैं।
           भगवान् मनु, महादेव शिव, भगवान् विष्णु, महर्षि ब्रह्मा, महर्षि भरद्वाज, महर्षि वसिष्ठ, महर्षि अत्रि, महर्षि अगस्त्य, महर्षि व्यास आदि हजारों के निर्मल चरित्र वाले वेदज्ञ वैज्ञानिकों का भारत, इक्ष्वाकु, मान्धाता, हरिश्चन्द्र, रघु, राम, दुष्यन्तपुत्र भरत जैसे अनेक महान् धर्मात्मा राजपुरुषों का भारत, महर्षि परशुराम, महावीर हनुमान्, भीष्म पितामह, आद्य शंकराचार्य एवं महर्षि दयानन्द जैसे अखण्ड ब्रह्मचारियों का भारत, महात्मा बुद्ध व महावीर स्वामी जैसे वीतराग पुरुषों व अपाला, गार्गी, घोषा, लोपामुद्रा, मैत्रेयी जैसी विदुषियों का देश आज अपने ही काले अंग्रेज बने पुत्रों से पग-2 पर हार रहा है। वास्तविकता तो यह है कि हमारा प्यारा भारत मर गया है और उसके शव पर खडे़ होकर क्रूर, कामी, पापी इंडिया निर्लज्ज नग्न नृत्य कर रहा है।
             हे भगवन् राम! आज आपके कथित भक्त, हिन्दू-हिन्दू का जाप करने वाले संगठन, राजनैतिक दल सब मौन हैं। कोई कहीं आन्दोलन नहीं हो रहा। इस फैसले को बदलने के लिए कोई सोच भी नहीं रहा है। बात-2 में आन्दोलन व अराजकता फैलाने वाले आज क्यों शान्तिपूर्वक आन्दोलन नहीं करते? हाँ, अराजकता फैलाना तो राष्ट्र के प्रति द्रोह जैसा होता है परन्तु शान्तिपूर्वक आन्दोलन करना देश के प्रत्येक जागरूक नागरिक का धर्म है। आज आवश्यकता इस बात की है कि स्वयं को भारतीय, आर्य वा हिन्दू कहने पर गर्व करने वाला (महिला वा पुरुष) राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व सभी दलों के नेताओं को लगातार पत्र लिखकर दबाव बनाये, जिससे यह पिशाचों जैसा निर्णय वापिस लिया जा सके। कोर्ट से तो केवल पुनर्विचार की अपील ही की जा सकती है, जो सभी सक्षम नागरिकों को करनी ही चाहिए।
            मैं तो आप सबको जगा ही सकता हूँ, मैं ऐसे कामी निर्णय करने वालों से कोई याचना नहीं कर सकता।
           हे राम! अब कोर्ट में आपके मंदिर बनने पर सुनवाई होनी है। इस देश की कथित रामभक्त जनता की आपके मंदिर बनाने की इच्छा है परन्तु आपके निर्मल चरित्र के विनाश पर उनके हृदय में कोई हल-चल नहीं है। यह जनता चित्रों व मूर्तियों की पूजा को ही धर्म समझ रही है और ब्रह्मचर्य, सदाचार, प्रेम, करुणा जैसे वैदिक वा मानवीय मूल्यों से इनको कोई प्रेम नहीं रह गया है। आज कामुकता, हिंसा, वैर, दर्द, प्रतिशोध, अहंकार, द्वेष की अनिष्ट तरंगों से सम्पूर्ण आकाश व मनस्तत्त्व दूषित हो चुका है। इसी के कारण सम्पूर्ण विश्व में भयंकर चक्रवात, तूफान, भीषण गर्मी, दावानल, भूकम्प, सुनामी, बाढ़ व सूखा जैसी आपदाओं के साथ-2 नाना प्रकार के अपराधों में सतत वृद्धि हो रही है और इन पापों के कारण अभी और अधिक त्रासदी आयेगी।
            हे मेरे प्यारे देशवासियो! यदि आपका हृदय पत्थर का न हो और आपके अन्दर श्री राम के प्रति कुछ भी भक्ति शेष बची हो, तो मेरे इस लेख पर कुछ तो विचार करो। कोर्ट के निर्णय पर कुछ तो आंसू बहाओ, अपनी कुम्भकर्णी नींद से कुछ तो जगो, अन्यथा ईश्वर आपको कभी क्षमा नहीं करेगा। हमारे महान् पूर्वजों की स्मृतियां आपको धिक्कारेंगी। उठो! ऋषि-मुनियों के महान् वंशजो! अपने आत्मगौरव को जगाओ, माँ भारती व वेदमाता के दर्द को पहचानो, अपने धर्म व कर्त्तव्य को समझो। इसे, यदि कोई कथित प्रबुद्ध (वास्तव में बौद्धिक दास) धर्म, ईश्वर, वेद, ऋषियों व देवों का उपहास करने का दुस्साहस करे और आप उसका तर्कसंगत उत्तर न दे सकें, तो आप ऐसे अहंकारी कथित प्रबुद्ध (वास्तव में बौद्धिक दास) को मेरे पास लेकर आ सकते हैं और वह मेरे से ज्ञान युद्ध कर सकता है।
            हे श्री राम! आप तो इस समय मोक्षधाम में परमपिता परमात्मा की अमृतमयी गोद में विचरण कर रहे हैं, इधर आपके नादान भक्त आपको परमात्मा का अवतार मानकर यही सोचते हैं कि अधर्म बढ़ने पर आप अवतार लेंगे। भला, इससे अधिक और क्या अधर्म बढे़गा? ये महानुभाव अन्धश्रद्धा से अकर्मण्य होकर सैकड़ों वर्षों से हाथ पर हाथ धरे बैठे सारे पापों को सह रहे हैं। हाँ, यदि कोई इस अन्धश्रद्धा से जगाता है, तो उसको ही अपना शत्रु समझ बैठते हैं। मैं परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वे इन कथित रामभक्तों में सच्ची ईश्वर पूजा का भाव जगा कर आप श्री राम का सच्चा अनुयायी बनने के साथ-2 देश के न्यायाधीशों, वकीलों तथा सभी प्रबुद्ध जनों को न्यायशील बनने की सद्बुद्धि व शक्ति प्रदान करें।



✍️ आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

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गणपति की यथार्थता



कल हमने शिवपुराण में वर्णित गणेशजी के स्वरूप और इतिहास को प्रस्तुत किया था। इस पर कुछ पाठकों ने कुछ आपत्तियां की थीं और कुछ ने गणेशजी के वास्तविक स्वरूप को जानने की इच्छा व्यक्त की थी। इस विषय में हमारा कथन स्पष्ट है कि आज पौराणिक गणेश को ही सर्वत्र माना और जाना जा रहा है। इस पुराण में वर्णित कथा से कहीं भी आलंकारिक गणेश की सिद्धि नहीं होती है, जो महानुभाव गणेशजी के रूप की आलंकारिक व्याख्या करते हैं, उसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। क्या कोई शिवपुराण में वर्णित सम्पूर्ण कथा की ऐसी आलंकारिक व्याख्या कर सकता है? फिर शिवपुराण की कथा में गणेशजी के छः हाथ होने का संकेत भी नहीं है, तब क्या कोई चित्रकार जैसा भी चित्र बना दे, उसकी ही हम आलंकारिक व्याख्या करने लग जायेंगे? क्या देवों अथवा ईश्वर का स्वरूप चित्रकार निर्धारित करेंगे? क्या हमें इसके लिए वेद और ऋषियों के ग्रन्थों की कोई आवश्यकता नहीं है? जो महानुभाव धर्म को केवल आस्था और विश्वास की वस्तु मानते हैं, क्या वे इस बात पर चिंतन करेंगे कि सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं हो सकता और सत्य का निर्धारण कभी आस्था और विश्वासों से नहीं, बल्कि तर्कसंगत तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर होता है। वेद के पश्चात् संसार के सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ मनुस्मृति (मिलावटी श्लोकों को छोड़कर) में भगवान् मनु ने स्पष्ट कहा है-

‘‘यस्तर्केण अनुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः।’’

        अर्थात् जो तर्क के साथ अनुसंधान करता है, वही धर्म को जान सकता है, अन्य प्रकार से नहीं। महर्षि यास्क ने निरुक्त शास्त्र में तर्क को ऋषि और ऊहा को ब्रह्म कहा है। इससे स्पष्ट है कि धर्म कभी भी आस्था और विश्वासों के आधार पर नहीं समझा जा सकता। जबसे ऋषियों की इस बात को भुलाकर, वेद से सर्वथा अज्ञानी रहकर कल्पित ग्रन्थों एवं वेदविहीन धर्माचार्यों व कथा वाचकों की मिथ्या कथाओं को सुनकर आस्था और विश्वासों के आधार पर धर्म का निर्धारण होने लगा, तबसे संसार में हजारों धर्म पैदा हो गये और उन परस्पर विरोधी कथित धर्मों ने मानव समाज को खण्ड-2 करके खून की नदियां बहाई हैं। यह खेल सैकड़ों वर्षो से अनवरत जारी है। कोई भी अपने कथित धर्म पर वैज्ञानिक दृष्टि से तर्कसंगत विचार करके एक सत्यधर्म की खोज का प्रयास नहीं करता।

गणपति की ऐतिहासिकता-
महाभारत में गणेशजी को महर्षि व्यास जी का लेखक अवश्य बताया है परन्तु उसमें गजानन्द, एकदन्त एवं शिवपुत्र जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं हैं, न उनका कोई स्पष्ट परिचय है। वो व्यासजी के वचनों को लिखने के लिए आये और लिखने लगे, यह चर्चा दो-तीन श्लोकों में हैं, परन्तु महाभारत ग्रन्थ की समाप्ति पर यह कहीं भी संकेत नहीं है कि गणेशजी लेखन कार्य पूर्ण करके वापस चले गये। फिर यहाँ यह भी विचारणिय है कि महर्षि वेदव्यास जी जैसे महापुरुष की शिष्य मंडली में क्या कोई ऐसा योग्य भी नहीं था कि लेखन कार्य भी कर लेता। इस कारण यह प्रसंग ही प्रक्षिप्त (मिलावट) प्रतीत होता है। उल्लेखनीय है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने सत्यार्थ प्रकाश में राजर्षि भोज द्वारा लिखित ‘‘संजीवनी’’ नामक ग्रन्थ के हवाले से कहा है ‘‘व्यास जी ने महाभारत में कुल चार हजार चार सौ श्लोक ही लिखे थे। पुनः उनके शिष्यों ने पाँच हजार छः सौ श्लोक मिलाकर दश हजार श्लोकों का ‘‘भारत’’ नामक ग्रन्थ बनाया। महाराज विक्रमादित्य के समय में बीस हजार श्लोेक, महाराजा भोज कहते हैं कि मेरे पिताजी के समय में पच्चीस और अब मेरी आधी उम्र में तीस हजार श्लोक का महाभारत पुस्तक मिलता है, जो ऐसे ही बढ़ता चला, तो महाभारत का पुस्तक एक ऊँट का बोझा हो जायेगा और ऋषि-मुनियों के नाम से पुराणादि ग्रन्थ बनावेंगे, तो आर्यावर्तीय लोग भ्रमजाल में पड़के वैदिक धर्म विहीन हो के भ्रष्ट हो जायेंगे।’’

पाठक यह बात सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में स्वयं पढ़ सकते हैं। यह मिलावट राजा भोज के पश्चात् भी निरन्तर जारी रही और आज गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत ग्रन्थ में एक लाख दो सौ सत्रह श्लोक हैं। इस कारण महाभारत के प्रमाण देने से पूर्व विशेष तर्क बुद्धि और गंभीर स्वाध्याय का आश्रय लेना आवश्यक है। इन सब कारणों से हमें गणेशजी का इतिहास ही पूर्णतया कल्पित प्रतीत होता है। हिन्दुओं में पूजे जा रहे विभिन्न देवी-देवताओं में महादेव, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, भगवती उमा, राम, हनुमान् एवं कृष्ण आदि ऐतिहासिक पुरुष हैं। इनमें से शिव, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र एक परमपिता परमेश्वर के भी गुणवाची नाम हैं, जो वेदों में वर्णित हैं और वेदों में से ही पढ़कर हमारे महापुरुषों ने अपने-2 नाम रखे। इस प्रकार जिन साकार देवों की पूजा होती है, वह वस्तुतः ईश्वर की पूजा नहीं बल्कि उन महापुरुषों के विकृत चित्रों की पूजा होती है। इनमें गणेशजी की ऐतिहासिकता कहीं सिद्ध नहीं होती है।

गणेश जी का वैदिक स्वरूप-
वस्तुतः गणपति ईश्वर का नाम अवश्य है, जो वेदों में उपलब्ध है। इस नाम की व्याख्या करते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में लिखते हैं।
‘‘जो प्रकृत्यादि जड़ और सब प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करने हारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘‘गणेश’’ वा ‘‘गणपति’’ है।’’ वेद में ऐसे ही गणपति का वर्णन अनेक मन्त्रों में आता है। गणपति का एक नाम राजा भी होता है, क्योंकि वह ‘‘गण’’ अर्थात् प्रजा के समुदायों का रक्षक और पालक होता है। गणपति का एक अर्थ सेनापति भी होता है, क्योंकि वह सेना के समूहों का स्वामी होता है। आचार्य और माता-पिता को भी गणपति कह सकते हैं। निघण्टु शास्त्र में ‘‘गणः’’ शब्द वाक् तत्त्व के लिए प्रयुक्त हुआ है।
इस कारण वैज्ञानिक अर्थ में गणपति का अर्थ मनस्तत्त्व, प्राणतत्त्व एवं आध्यात्मिक अर्थ में परमात्मा होता है। महर्षि तित्तिर द्वारा रचित तैत्तिरीय संहिता में विभिन्न मरुद् रश्मियों को गणपति कहा है। क्योंकि ये रश्मियां इस ब्रह्मांड में सूक्ष्म प्राण एवं छन्द रश्मियों के साथ मिलकर विद्युत् तंरगों को उत्पन्न वा नियन्त्रित करती हैं। ये मरुद् रश्मियां ही आकाशीय विद्युत् एवं विभिन्न तारों में बहने वाली तीव्र विद्युत् तरंगों को समृद्ध करती हैं। इधर आध्यात्मिक अर्थ में इन्द्रियों का स्वामी होने के कारण जीवात्मा को भी गणपति कह सकते है।

सारांशत- गणपति/गणेश के तीन अर्थ सिद्ध होते है-
1. आध्यात्मिक- ईश्वर एवं जीवात्मा
2. आधिभौतिक- राजा, सेनापति, माता-पिता एवं आचार्य आदि
3. आधिदैविक (वैज्ञानिक)- मनस्तत्त्व, प्राणतत्त्व एवं मरुद् रश्मियां


गणपति की पूजा कैसे करें
1. आध्यात्मिक गणपति की पूजा- समस्त ब्रह्मांड के स्वामी निराकार गणपति परमेश्वर की नित्य उपासना, ध्यान करते हुए, जैसे वह सबका पालन व रक्षण करता है, वैसे ही हम भी न केवल मनुष्य अपितु प्राणिमात्र के साथ मित्रवत् व्यवहार करके उन के सुख को अपना सुख एवं उनके दुःख को अपना दुःख समझें। मिथ्या आस्थाओं के नाम पर चल रहे सम्प्रदायों, भाषा, देश एवं कथित जाति, लिगं, रंग आदि के नाम पर वैर, विरोध एवं भेदभाव कदापि न करें।
दूसरी ओर अपने आत्मा को वास्तव में इन्द्रियों का स्वामी बनावें, एवं स्वच्छन्दता, विषयलोलुपता आदि से दूर रहने का प्रयास करें।

2. आधिभौतिक गणपति की पूजा- देश का राजा (वर्तमान में नेता) देश की पूजा का वास्तव में पालन और रक्षण करने वाला होवे, वह जाति, मजहब आदि के नाम पर किसी के साथ अन्याय, भेदभाव न करके समान रूप से सबका संरक्षण करने वाला होवे। वह आध्यात्मिक गणपति की सच्ची पूजा करने वाला होवे। इसके साथ ही प्रजा का यह कर्त्तव्य है कि देश में उपलब्ध नेताओं में से तुलनात्मक रूप से जो भी ऐसी पूजा करने वाला हो, उसको ही अपना नेता चुने। योग्यता, चरित्र और कर्मठता की तुलना करके ही नेता का चुनाव करें। तात्कालिक लोभ तथा जाति और मजहबों के प्रलोभन से बचेें और राष्ट्रहित को सर्वोपरि समझे।जब शासक गणपति के सच्चे उपासक न हों, तो राष्ट्र की सजग प्रहरी जनता संगठित होकर शान्तिपूर्ण तरीके से उन्हें सत्य न्याय के मार्ग पर चलने के लिए बाध्य करे। दुर्भाग्यवश आज अन्याय की मांग करने वाले संगठित होकर आन्दोलन करते हैं परन्तु न्याय की मांग करने वाले असंगठित ही रह कर घर बैठे शासकों की निन्दा मात्र तक सीमित रहते हैं।
उधर राष्ट्र की रक्षिका सेना के प्रति प्रत्येक गणपति पूजक आत्मीयता व सम्मान का भाव रखते हुए अपनी ओर से राष्ट्रीय सुरक्षा कोष हेतु व्यक्तिगत निरन्तर आर्थिक सहयोग करना अथवा कर्त्तव्य समझे, जिससे हमारी सेना समृद्ध व सशक्त होवे और सैनिकों को पर्याप्त सुविधाएं मिल सकें। इसी प्रकार सच्चे विद्वानों व माता-पिता के प्रति सेवा-सत्कार का भाव रखना भी सच्ची गणपति पूजा है।

3. आधिदैविक (वैज्ञानिक) गणपति की पूजा- मनस्तत्त्व, प्राण, मरुत् आदि रश्मियों का गंभीर ज्ञान करके ब्रह्मांड को समझने का प्रयास किया जाए एवं सृष्टि विद्या को यथार्थ रूप में जानकर आधुनिक भौतिकी को पूर्णता और प्रामाणिकता प्रदान करके संसार में पूर्ण निरापद एवं अति आवश्यक तकनीक का ही विकास किया जाए, जिससे पर्यावरण तन्त्र सुरक्षित और स्वस्थ रहकर प्राणिमात्र को सुख देने वाला होवे।

नोट- वर्तमान में पाण्डालों में पूजा करने वाले गणेशजी के सभी भक्तों से आग्रह है कि वे अपनी पूजा पद्धति और हमारी पूजा दोनों की तुलना निष्पक्ष रूप से स्वयं करके देखें, केवल भावनाओं एवं मिथ्या परम्पराओं में नहीं बल्कि मन और बुद्धि से शांतचित होकर आपका आत्मा जैसा उचित समझे वैसा करें।

-आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

पौराणिक गणेश का स्वरूप



हिन्दुओं के देवों में गणेश जी का नाम बड़ा महत्वपूर्ण है। प्रत्येक मंगल कार्यों में इनकी पूजा को अनिवार्य व अनिष्टहर्त्ता माना जाता है। बड़ा उदर होने से इन्हें ‘लम्बोदर’ भी कहा जाता है तथा हाथी का शिर होने से ‘गजानन’ भी कहते हैं। बिडम्बना यह है कि कोई नहीं विचारता कि हमने गणेश जी का क्या रूप बनाया है, जिसे देखकर कोई भी हिन्दूविरोधी व्यंग्य करेगा। हर वैज्ञानिक सोच वाला हंसेगा परन्तु कथित धर्माचार्य व धर्मभीरु मनुष्य नास्तिक कह कर उसकी निन्दा करेगा, तो कोई इसे सर्जरी का परिणाम बताकर प्राचीन भारतीय विज्ञान पर गर्व करेगा। वास्तविकता को जानने का प्रयास कोई नहीं करेगा।

मैं यहाँ भोले मित्रों को शिव महापुराण, व्याख्याकार- डॉ. ब्रह्मानन्द त्रिपाठी, प्रकाशक- चौखम्भा, संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली के आधार पर गणेश जी के जन्म की अति संक्षिप्त कथा लिख रहा हूँ-

इसके द्वितीय रुद्रसंहिता- चतुर्थ कुमारखण्ड के अध्याय 13 से 18 पृष्ठ सं. 627 से 647 तक इसका वर्णन है-

प्रथम कथा- ब्रह्माजी के अनुसार शनि की दृष्टि पड़ने से उनका सिर कटा, फिर उनके धड़ पर हाथी का सिर जोड़ दिया- श्लोक सं. 5

द्वितीय कथा- इसी अध्याय के 20वें श्लोक से कथा का प्रारम्भ है, जिसमें देवी पार्वती ने अपने शरीर से मैल उतार कर एक विशाल आकार के पुरुष को बनाया, जो अति बलिष्ठ सुन्दर और पराक्रमी था। उसके हाथ में पार्वती जी ने विशाल लाठी दे दी। जब शिव जी बाहर से आये, तो उस अपरिचित योद्धा को देखकर क्रुद्ध हुए, तब गणेश जी ने शिव जी को लाठी से मारा। तब शिवजी ने अपने गणों से उस अपरिचित योद्धा गणेश को दण्डित करने को कहा। तब गणेश जी ने उन गणों को फटकार कर भगा दिया। शिव जी ने फिर उन्हें डांट कर गणेश को पीटने को भेजा परन्तु गणेश ने उन सभी गणों को पीट कर फिर भगा दिया। तब शिव जी ने उन्हें फिर फटकार पुनः गणेश को पीटने के लिए भेजा, पुनः वे डर कर शिव जी के पास आ गये। तब शिवजी ने पुनः युद्ध के लिए भेजा, तब गणेश ने उनको युद्ध में मार-2 कर लहूलुहान कर दिया। वे हजारों गण भाग कर शिव जी के पास पुनः आ गये। इसके बाद शिव जी ने ब्रह्मा जी को अनेकों ऋषियों के साथ गणेश को समझाने भेजा परन्तु ब्रह्माजी के द्वारा विनती करने पर भी गणेश जी परिघ उठाकर ब्रह्माजी को मारने दौडे़ तथा उनके दाढ़ी-मूँछों को नोंच लिया। इससे शिवजी अति क्रुद्ध हुए और उन्होंने इन्द्रादि देवताओं, कार्तिकेय आदि गणों, भूत, प्रेत पिषाचों को अपने-2 अस्त्र-षस्त्र लेकर गणेष के साथ युद्ध करने भेजा। फिर पार्वती जी भी युद्ध में कूद पड़ीं। और देवताओं, गणों, भूतों व पिशाचों के सभी अस्त्र-शस्त्रों को काट कर भगा दिया। अन्त में विष्णु जी से मन्त्रणा करके शिव जी देवताओं की सेना के साथ गणेश जी से युद्ध करने आए। परन्तु वे सभी गणेश का सामना नहीं कर सके तथा विष्णु जी के परामर्श से छल से गणेश जी का सिर शिव जी ने काट दिया। इसके पश्चात् पार्वती जी ने शिव जी को गणेश जी का परिचय कराया। तब शिव जी ने एक हाथी का सिर काट कर गणेश जी के धड़ पर जोड़ दिया।

मेरे हिन्दू भाइयो! क्या इस कथा से आपको कहीं भी अध्यात्म व विज्ञान की गन्ध भी आती है? क्या पार्वती जी के शरीर पर इतना मैल था, जिससे एक विशाल आकार वाले योद्धा का शरीर बन गया? क्या शिव जी को यह भी ज्ञान नहीं हुआ कि उनकी पत्नी द्वारा उत्पन्न उन्हीं का पुत्र है, जिसकी उत्पत्ति मैल से हुई? क्या मैल से शरीर बन सकता है? क्या इसमें ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु व स्वयं शिव की दुर्गति नहीं दर्शायी है? क्या हम स्वयं ही अपने देवों का उपहास नहीं कर रहे हैं? क्या वे सभी कायर व दुुर्बल थे? क्या इससे इन देवों का अपमान नहीं होता है? क्या भारतीय व इतिहास व संस्कृति के विरोधी लोगों को आप इन महापुरुषों के अपमान का स्वयं अवसर नहीं दे रहे हैं? निर्दोष हाथी को मार कर क्या आप शिव जी को अपराधी सिद्ध नहीं कर रहे हैं? जो शिव जी मनुष्य के धड़ पर हाथी का सिर जोड़ सकते हैं, उन्होंने गणेश जी का कटा हुआ सिर क्यों नहीं जोड़ दिया? क्या मनुष्य के धड़ पर हाथी का सिर जोड़ा जा सकता है? यदि जोड़ भी दें, तो हाथी का सिर कैसे मानवीय कार्य करेगा? उसमें मस्तिष्क, स्वर यन्त्र, सभी तो हाथी के होंगे, तब क्या गणेश जी हाथी की भाँति चिंघाड़ते थे? क्या वे हाथी जैसी बुद्धि रखने वाले प्राणी बन गये थे? उन्हें तो बुद्धिमान् व वक्ता माना जाता है, तब यह कैसे सम्भव है?

मेरे मित्रो! जरा विचारो! आज भारतविरोधी शक्तियां वैसे ही हमारे इतिहास पर प्रश्न खड़े कर रही हैं। सत्य सनातक वैदिक धर्म का उपहास कर रही हैं, टी.वी. चैनलों पर ऐसे नास्तिकों को शोर मचाते देखकर मैं भी दुःखी होता हूँ परन्तु जब अपने ही पुराण जैसे कल्पित ग्रन्थ ऐसी कहानियां लिखें और घर-2 यही प्रचालन में हो, तब विधर्मियों को दोषी कैसे मानूं? अनेक गणेेश भक्त मेरे इस लेख पर ही क्रुद्ध होंगे। मेरा निवेदन है कि विवेकपूर्वक प्रत्येक बात की परीक्षा करें। अंधी आस्था में बहकर धर्म व इतिहास दोनों को नष्ट न करें। इधर मैं महाभारत ग्रन्थ की चर्चा करूं, तो उसमें कहीं भी गणेश जी का नाम नहीं है, केवल कार्तिकेय को शिव जी का पुत्र बताया गया है। आशा है आप मेरे विचारों को अपने मस्तिष्क की गहराईयों से निष्पक्षता की तराजू में तोलकर सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करने का साहस करेंगे।

-आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

जब हिमालय रो पड़ा...



हिमालय इस भूमंडल का एक सर्वाधिक पवित्र पर्वत रहा है। यह देव भूमि व ऋषियों की तपःस्थली के रूप में सर्वत्र विख्यात रहा है। इस महान् नगराज ने अपनी पवित्र गोद में परमयोगिराज भगवत्पाद महादेव शिवजी एवं योगेश्वरी भगवती उमा देवी के साथ योग साधना के साथ-साथ वैदिक विज्ञान के द्वारा ब्रह्मांड के गंभीर रहस्यों को उद्घाटित करते, दुष्ट दलनार्थ पाशुपत जैसे महान् अस्त्रों का निर्माण करते देखा है। इसी हिमगिरि ने परमर्षि भगवान् ब्रह्मा जी, अमित पराक्रमी भगवान् विष्णु जी एवं महान् ऐश्वर्यसंपन्न देवराज इंद्र को योग साधना के साथ-साथ वेद द्वारा भौतिक एवं आध्यात्मिक विद्याओं की गहन साधना करते देखा है। इसी की पावनी गोद में सहस्त्रों तपःपूत देवों व ऋषि-मुनियों को परमपिता परमात्मा की अमृतरूपी छाया में आनंद की अनुभूति करते देखा है। इसी की गोद से निःसृत पवित्र गंगा-यमुना आदि सरिताओं के तीर पर आर्य महापुरुषों व योगियों को योगाभ्यास एवं इसके द्वारा वेद विद्याभ्यास करते देखा है। इसी की गोद में दुष्यंत पुत्र भरत जैसे चक्रवर्ती सम्राट् पले-बढ़े एवं संस्कारित हुए थे। वैदिक धर्म के महान् संरक्षक योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी धर्म पत्नी भगवती देवी रुक्मिणी के साथ विवाहोपरान्त गर्भाधान क्रिया से पूर्व 12 वर्ष परमात्मा की साधना में मग्न रहे थे। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम, महावीर परमविद्वान् बाल ब्रह्मचारी हनुमान्, महान् धनुर्धर अर्जुनादि पांडवों एवं अनेक महापुरुषों का किसी न किसी प्रकार इस महान् पवित्र पर्वतराज से संबंध रहा है।
हे हिमालय! तुम्हें इन सभी महापुरुषों पर बड़ा गर्व था। संभवतः तुम सोचते थे कि इन महापुरुषों की संतति ऐसे ही महान् आदर्शों वाली बनी रहेगी। किंतु धीरे-धीरे इस हिमालय ने इस भारत को बर्बर विदेशी अतातायियों से पैरों तले कुचलते देखा और इसने इस भारत के कई टुकड़े होते भी देखा। यह सब दृश्य देखकर तुम घायल अवश्य हुए परंतु टूटे नहीं। तुमने तैमूर, बाबर, अकबर, औरंगजेब, डायर आदि के अत्याचारों को देखा, तब भी तुम टूटे नहीं परंतु जब कथित स्वतंत्र भारत में शासन व न्यायालयों ने वैदिक व भारतीय संस्कृति-सभ्यता पर करारी चोट की, स्वतन्त्रता के नाम पर दुराचारिणी स्वच्छन्दता को सम्मान मिला, तब तुम्हारे हृदय से आह फूट पड़ी। जब सर्वाेच्च न्यायालय ने ‘लिव इन रिलेशन’ के नाम से किसी कन्या वा विवाहिता महिला का किसी भी परपुरुष के साथ स्वेच्छया रहने को वैध ठहराया और उसमें भगवान् श्रीकृष्ण जी महाराज का नाम घसीटा गया, तब तुम्हारा हृदय टूट गया और आह भी न कर सके। तुम्हारी यह दीनदशा को देखकर प्राचीन ऋषियों व देवों की आत्मा भी भयभीत हो गयी। अब दिनांक 06.09.2018 को पुनः सर्वाेच्च न्यायालय ने तुम्हारे हृदय में छुरा घोंप दिया। समलैंगिकता के घोर पाप व अप्राकृतिक कुकृत्य को वैध बताकर यह सिद्ध हो गया कि यह देश मनुष्यों के रहने योग्य तो क्या, यहाँ जंगली जानवर व पशु-पक्षी भी भय खाएंगे। इस निर्णय से हिमालय का हृदय विदीर्ण होकर आहें भरने लगा। अब कल के निर्णय को सुनकर जंगली और पालतू पशु-पक्षी भी भागने लगेंगे। उन्हें भय होगा कि ये समलैंगिक कामी व स्वच्छन्द मानव शरीरधारी कहीं उन्हें ही अपनी हवस का शिकार न बना लें। ये जानवर जजों, वकीलोें, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मीडियाकर्मियों, मानवाधिकारवादियों, उच्च प्रबुद्ध कहाने वाले, सभ्य व प्रगतिशील दिखने वालों को देखकर विशेष रूप से भागेंगे, क्योंकि स्वच्छन्दता जन्य कामज्वर इन्हें ही अधिक सता रहा है। स्वच्छन्द कामुक भोजन, कामुक अध्ययन, कामुक दर्शन-श्रवण फिर शासन व न्यायालयों के कामुक निर्णयों की मुहर, तब दुधमुँही बच्चियों पर अत्याचार क्यों नहीं होंगे? अब तो घरेलू चिड़िया व चिड़ा जैसे कामी पक्षी भी इस कामी मानवदेहधारी जानवर को देख कर चीं-चीं करते भाग जाया करेंगे। अब उन्हें जितना भय अपने शिकारी जानवर और मनुष्य का नहीं होगा, उतना भय शिक्षा व सभ्यता का आवरण ओढ़े इस बर्बर कामी व स्वच्छन्द कथित मनुष्य का होगा। इस कथित मनुष्य को जो कुछ भय था, वह दूर हो गया है। देश में राष्ट्रवाद का शंखनाद करने वाले संगठन वा नेता मौन हैं, मानो उनकी वाणी को लकवा मार गया है। उधर एक भगवाधारी समलैंगिकता का पुरोधा अग्निवेश प्रसन्नता से झूम रहा है। देश-विदेश का मीडिया आनंद मना रहा है। इस समलैंगिकता के पुरोधा नकली बाबा ने महान् ब्रह्मचारी महर्षि दयानंद सरस्वती व आर्य समाज के सिद्धांतों की अंत्येष्टि कर डाली है। दुर्भाग्य से इस बाबा के समर्थक स्वयं को आर्यसमाजी व महर्षि दयानंद का भक्त कहते हैं। इन्होंने आर्य समाज को खंड-खंड कर डाला है, तो कुछ महानुभाव एकता का प्रयास कर रहे हैं। ये संगठनवादी समलैंगिकता, आतंकवाद, नक्सलवाद, देशद्रोह सबके साथ मिलकर संगठन का परिचय देना चाहते हैं। आर्य समाज के नियम व वैदिक आर्ष सिद्धांतों की चिता जले, इसकी किसी को कोई चिंता नहीं।
हे हिमालय! तुम्हें कुछ आशा थी, तो ब्रह्मचर्य व वेदविद्या के इस युग के महान् प्रणेता महर्षि दयानंद के अनुयायी आर्य समाज से किंतु वह भी इन कामी बाबाओं के कारण दिशाहीन होकर भटक रहा व विनाश के पथ पर अग्रसर है। कुछ महानुभव सोशल मीडिया पर गुरुकुलों में समलैंगिकता होने का प्रचार कर रहे है, यह बात सुनी मैंने भी है परन्तु अब सभी कामी चोर की भांति नहीं बल्कि अकड़ कर ये पाप करेंगे। हे पर्वतराज! मैं तुम्हारे दर्द को जानता हूं। मेरे जैसे अनेक देशभक्त व वेदभक्त भी तुम्हारे दर्द को अनुभव कर रहे हैं। मैं अपने वेदविज्ञान के द्वारा संपूर्ण पापान्धकार को मिटाने की दिशा में शनैः-2 आगे बढ़ रहा हूं परंतु लगभग जन्म से रुग्ण शरीर व परायों के साथ अपनों का भी विरोध इसमें भारी बाधा उत्पन्न कर रहा है। मैंने जीवन में असत्य भाषण व कर्म को करने की इच्छा भी नहीं की, तब शेष जीवन में भी ऐसा करने की सोच भी नहीं सकता, भले ही कोई भी विपत्ति क्यों न आये? मैंने तुम्हारे दर्द को मिटाने की अचूक दवा को तैयार तो कर लिया है परंतु इसके विस्तृत अनुसंधान, प्रचार व प्रसार में न केवल देश, वेद, ऋषियों व देवों का दर्द अपने हृदय में समेटे ऊर्जावान्, स्वस्थ, बलवान् युवा पीढ़ी का साथ चाहिए, अपितु पर्याप्त संसाधनों के लिये निःस्पृह भामाशाह भी चाहिए। आज जो बौद्धिक दास विदेशी ज्ञान विज्ञान व सभ्यता को अपना आदर्श मानते हैं तथा प्राचीन भारतीय व वैदिक ज्ञान विज्ञान को दीन व निकृष्ट मानकर स्वयं को ही मूर्खों का वंशज मानते हैं, उनके मनोराग व बौद्धिक दासत्व को नष्ट करने की दवा मेरे पास है, जो चाहे, आकर ले सकता है।
हे नगराज! कैसी विडंबना है कि मैं इन अभागे भारतीयों को महाबुद्धिमान् व पवित्रात्मा पूर्वजों का वंशज बताता हूं, तो ये मंदबुद्धि व मनोरोगी भारतीय मुझे ही गाली प्रदान करते हुए घोषणापूर्वक कहते हैं कि नहीं.... हम तो मूर्खों के वंशज हैं, हम बन्दर आदि पशुओं के वंशज हैं। ऐसे ही अभागे समलैंगिकता व ‘लिव इन रिलेशन’ जैसे स्वच्छन्दी कानूनों पर नग्न नृत्य करते हैं। ये कानून तो उदाहरण है, अभी तो बौद्धिक दासत्व व निकृष्ट पशुता का प्रारंभ है, अभी तो कुछ सम्बन्ध पवित्र बचे हैं, धीरे-2 कानून इन्हें भी नष्ट भ्रष्ट कर देंगे। असुरों राक्षसों व पिशाचों के आत्मा भी इन कथित प्रगतिशीलों के आचरण पर लजायेंगे। परंतु हे हिमालय! धैर्य रखो, मेरे पास इनके सुधारने के उपाय है, संभवतः हजारों सज्जन देशभक्त भी अभी इस आर्य समाज, हिन्दू समाज वा देश में विद्यमान हैं। वे एक होकर वैदिक ज्ञान-विज्ञान के ध्वज के नीचे आकर इस दासत्व के विरुद्ध संघर्ष अवश्य करेंगे, ऐसी मैं आशा करता हूं। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो मैं भी तेरी भांति टूट जाऊंगा। इस विषम परिस्थिति व दुर्बल स्वास्थ्य एवं संसाधनों के अभाव में मैं भी कहीं शांत हो जाऊंगा।
-आचार्यअग्निव्रत नैष्ठिक

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