भगवान् महादेव शिव उपदेशामृत (8)


वर्ण परिवर्तन (1)

स्थितो ब्राह्मणधर्मेण ब्राह्मण्यमुपजीवति।
क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा ब्रह्मभूयं स गच्छति।। 8।।


यदि क्षत्रिय अथवा वैश्य ब्राह्मण धर्म का पालन करते हुए ब्राह्मणत्व का सहारा लेता है तो वह ब्रह्मभाव को प्राप्त अर्थात् ब्राह्मण हो जाता है।। 8।।
यस्तु विप्रत्वमुत्सृज्य क्षात्रं धर्म निषेवते।
ब्रह्मण्यात् स परिभ्रष्टः क्षत्रयोनौ प्रजायते।। 9।।

जो ब्राह्मणत्व का त्याग करके क्षत्रिय धर्म का सेवन करता है, वह अपने धर्म से भ्रष्ट होकर क्षत्रिय योनि में जन्म लेता है अर्थात् व क्षत्रिय हो जाता है।। 9।।

वैश्यकर्म च यो विप्रो लोभमोहव्यपाश्रयः। 
ब्राह्मण्यं दुर्लभं प्राप्य करोत्यल्पमतिः सदा।। 10।।
स द्विजो वैश्यतामेति वैश्यो वा शूद्रतामियात्।
स्वधर्मात् प्रच्युतो विप्रस्ततः शूद्रत्वमाप्नुते।। 11।।

जो विप्र दुर्लभ ब्राह्मणत्व को पाकर लोभ और मोह के वशीभूत हो अपनी मन्दबुद्धिता के कारण वैश्य का कर्म करता है, वह वैश्य योनि में जन्म लेता है अर्थात् वह वैश्य ही हो जाता है अथवा यदि वैश्य शूद्र के कर्म को अपनाता है, तो वह भी शूद्रत्व को प्राप्त होता है। शूद्रोचित कर्म करके अपने धर्म से भ्रष्ट हुआ ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है।। 10-11।।
                                        ( महाभारत, अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्व, अ. 143, गीताप्रेस )

यहाँ पाठक विचारें तो स्पष्ट होगा कि ब्राह्मणादि वर्ण जन्म से नहीं बल्कि कर्म व योग्यता से निर्धारित होते हैं। वर्तमान में तथाकथित जातियों में बंटे तथा वेदोक्त वर्णव्यवस्था की बिना विचारे, निन्दा करने वाले विचारें कि-
 क्या स्वयं ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य मानने वाला अपने-2 कर्मों से भ्रष्ट होकर तथा शूद्र के कर्म करने पर स्वयं को शूद्र मानने हेतु उद्यत है?

 क्या वे अपने पूर्वजों के नाम पर गर्व करते-2 अपने वर्तमान स्तर व कर्मों की उपेक्षा करेंगें?


 क्या स्वयं को शूद्र मानने वाले नेता, शिक्षक, अधिकारी, कृषक, व्यापारी व पशुपालक होकर भी स्वयं को
      शूद्र न मान कर सरकारी आरक्षण आदि लाभों को छोड़ने को उद्यत हैं?

यदि ऐसा नहीं, तो आप सभी शिवभक्त कहाने योग्य नहीं और न धार्मिक ही।

उल्लेखनीय है कि चारों ही वर्णों में सदाचार, जितेन्द्रियता, मन-वचन-कर्म से सत्य का पालन आदि गुण समान हैं। विद्या के स्तर के अनुसार कर्मों का विभाजन किया गया है, सभी परस्पर एक दूसरे का हित करने वाले हैं। जो व्यक्ति मांसाहारी, अण्डाहारी, मछली खाने वाले, किसी भी प्रकार का नशा करने वाले, चोरी, तस्करी, हिंसा, असत्य आचरण करने वाले, लम्पट, कामी, क्रोधी, ईर्ष्यालु, रिश्वत लेने वाले, ठगी करने वाले, वस्तुओं में मिलावट करने वाले, राष्ट्र वा समाज में फूट डालने वाले व्यक्ति हैं, वे वैदिक मतानुसार अनार्य अर्थात् दस्यु कहाते हैं। इस कारण वे न तो ब्राह्मण हैं, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र, बल्कि वे पापी व अनाचारी लोग हैं, चाहे वे कितने ही लौकिक वैभव सम्पन्न क्यों न हों, उनसे सच्चा शूद्र अर्थात् श्रमिक श्रेष्ठ है।

-आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

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