ईश्वर के अस्तित्व की वैज्ञानिकता - 14



                                                  ईश्वर के कार्य कर​​ने की प्रणाली
ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व व स्वरूप की वैज्ञानिकता की चर्चा के उपरान्त हम इस बात पर विचार करते हैं कि ईश्वर इस सृष्टि की रचना, संचालन, धारण व प्रलय आदि प्रक्रियाओं में अपनी क्या व कैसी भूमिका निभाता है अर्थात् उसकी कार्यप्रणाली- क्रियाविज्ञान क्या है? संसार भर के ईश्वरवादी नाना प्रकार से ईश्वर की चर्चा तो करते हैं परन्तु इस बात पर विचार भी नहीं करते कि वह ईश्वर अपने कार्यों को सम्पन्न कैसे करता है? हम यह जानते हैं कि इस सृष्टि में जो भी क्रियाएं हो रही हैं, उनके पीछे चेतन तत्व ईश्वर की भूमिका है। वहीं प्राणियों के शरीरों में जीवात्मा रूपी चेतन तत्व की भी भूमिका होती है। हम यहाँ ईश्वर तत्च की भूमिका की चर्चा करते हैं। क्या ईश्वर छोटे-२ कण, क्वाण्टा आदि से लेकर बड़े-२ लोक लोकान्तों के घूर्णन व परिक्रमण, उनके धारण, आकर्षण, प्रतिकर्षण बलों का प्रत्यक्ष कारण है? नहीं, ईश्वर सूर्यादि लोकों व इलेक्ट्रॉन्स आदि कणों को पकड़कर नहीं घुमाता वा चलाता है, बल्कि ये सभी पदार्थ उन्हीं विभिन्न बलों, जिन्हें वर्तमान विज्ञान जानता वा जानने का यत्न कर रहा है, के द्वारा अपने-२ कार्य कर रहे हैं। हाँ, इन बलों की उत्पत्ति जिन प्राण व छन्दादि पदार्थों से हुई है, उन्हें वर्तमान विज्ञान किंचिदपि नहीं जानता। इसी कारण वर्तमान विज्ञान द्वारा माने जाने वाले मूलबलों की उत्पत्ति एवं क्रियाविधि की समुचित व्याख्या करने में यह विज्ञान अक्षम है। इन मूल बलों की उत्पत्ति एवं नियन्त्रण इन्हीं विविध प्रकार की प्राण व छन्दादि रश्मियों के द्वारा होती है। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती, ये प्राण व छन्दादि रश्मियां भी मन एवं सूक्ष्म वाक् तत्व के मिथुन से उत्पन्न व नियन्त्रित होती हैं। इस कारण मन एवं सूक्ष्म वाक् तत्व के स्वरूप व व्यवहार को समझे बिना प्राण व छन्दादि रश्मियों एवं उनसे उत्पन्न विभिन्न कथित मूल बलों (गुरुत्व, विद्युत चुम्बकीय, नाभिकीय बल एवं दुर्बल बल) के स्वरूप व क्रियाविज्ञान का यथावत् बोध नहीं हो सकेगा।
             ध्यातव्य है कि मन व वाक् तत्व भी जड़ होने के कारण स्वतः किसी कार्य में प्रवृत्त होने का सामर्थ्य नहीं रखते। इन्हें प्रवृत्त करने वाला सबका मूल तत्व चेतन ईश्वर है। वही इन मन एवं सूक्ष्म वाक् तत्व को प्रेरित करता है। इनके मध्य एक काल तत्व भी होता है परन्तु वह भी जड़ होने से ईश्वर तत्व से प्रेरित होकर कार्य करता है। इस प्रकार कार्य करने किंवा प्रेरक एवं प्रेरित पदार्थ, नियामक व नियम्य तत्वों की श्रृंखला इस प्रकार है-
           चेतन ईश्वर तत्व काल को प्रेरित करता है। काल तत्व मन- वाक् को प्रेरित करता, पुनः मन एवं वाक् तत्व प्राण व छन्दादि रश्मियों को प्रेरित करते हैं। तदुपरान्त वे प्राण व छन्दादि रश्मियां आधुनिक कथित चार प्रकार के मूल बलों को उत्पन्न व प्रेरित करती हैं, उसके पश्चात् वे चारों बल (वस्तुतः बलों की संख्या बहुत अधिक है, जो सभी प्राणादि रश्मियों के कारण ही उत्पन्न होते हैं) समस्त सृष्टि को उत्पन्न व संचालित करने में सहायक होते हैं।
            इस प्रकार ईश्वर तत्व प्रत्येक क्रिया के समय केवल काल वा ओम् छन्द रश्मियों को ही प्रेरित करता है, वे अग्रिम प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। ये इतने सूक्ष्म तत्व हैं कि मनुष्य कभी भी इन्हें किसी प्रयोग प्रेक्षण के द्वारा नहीं जान सकता। केवल उच्च कोटि का योगी ही इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को जान व समझ सकता है। इस ग्रन्थ में महायोगी महर्षि ऐतरेय महीदास ने इसी सम्पूर्ण प्रक्रिया को अपने महान् योग बल के द्वारा समझ कर इस महान् रहस्यपूर्ण ग्रन्थ में वर्णित किया है। परमेश्वर की असीम दया से हमने इस ग्रन्थ को समझने में सफलता पाई है। इसमें स्थान-२ पर ईश्वर तत्व की भूमिका का वर्णन किंवा उसके क्रियाविज्ञान का सांकेतिक वर्णन है, जिसे पाठक ग्रन्थ का अध्ययन करके ही जान सकेंगे। सारांशतः ईश्वर काल, ओम् रश्मि व प्रकृति को प्रेरित करके सृष्टि प्रक्रिया को प्रारम्भ व सम्पादित करता है। वह किसी क्रिया में जीवात्मा की भांति ऐसा भागीदार नहीं होता कि उसे अपने कर्मों का फल भोगना पड़े। वह सर्वथा अकाम है। केवल जीवों के लिए सब कुछ करता है, इस कारण वह कर्ता भी है और अकर्ता भी। वह सृष्टि का निमित्त कारण है। ईश्वर कैसे प्रेरित करता है? उस प्रेरणा वा जागरण का क्रियाविज्ञान क्या है? यह बात हमने आगे कालतत्व प्रकरण में संक्षिप्त रूप से समझायेंगे है, पाठक वहीं देख सकते हैं।

क्रमशः...

- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक (वैदिक वैज्ञानिक)
( "वेदविज्ञान-अलोक:" से उद्धृत)

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